पूज्यनीय वृक्ष पीपल : आयुर्वेद के लिये अनुपम देन
Administrator । May 10, 2013 | विविध |

पीपल एक ऐसा वृक्ष है जो आदि काल से स्वर्ग लोक के वट वृक्ष के रूप में इस धरती पर ब्रह्मा , जी के तप से उतरा है पीपल के हर पात में ब्रह्मा जी का वास माना जाता है आदि शंकराचार्य ने पीपल की पूजा को जहाँ पर्यावरण की सुरक्षा से जोड़ा है वही इसके पूजन से दैहिक , दैविक और भौतिक ताप दूर होने की बात भी कही है ।
पीपल न केवल एक पूज्यनीय वृक्ष है बल्कि इसके बृक्ष खाल , तना , पत्ते, तथा बिज आयुर्वेद की अनुपम देन भी है पीपल को निघनटु शास्त्र ने ऐसी अजर- अमर बूटी का नाम दिया है जिसके सेवन से वात रोग , कफ रोग, और पित्त रोग नष्ट होते है । भगवाद्रिता में भी इसकी महानता का स्पस्ट उलेख्य है गीता में इसे वृक्षों में श्रेष्ठ ‘अश्वतथ्य ‘ को अथर्ववेद में लक्ष्मी , संतान व आयुदाता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है कहा जाता है की इसकी परिक्रमा मात्र से हरोग नाशक शक्ति दाता पीपल मनोवांछित फल प्रदान करता है गंधर्वों, अफ्सराओं, यक्षिणी, भूत-प्रेतात्माओं का निवास स्थल , जातक कथाओं , पंचतंत्र की विबिध कथाओं का घटना स्थल तपस्वियों का आहार स्थल होने के कारण पीपल का महातम्य दुगुना हो जाता है ।
हिन्दू संस्कृति में पीपल देव वृक्ष माना जाता है उनकी अगाध आस्था में सराबोर पीपल को देव निवास मानते हुए इसको काटना या मूल सहित उखाड़ना वर्जित है अन्यथा देवों की अप्रसन्नता का परिणाम अहित होना है भारत में उपलब्ध विबिध वृक्षों में जितना अधिक धार्मिक एवं औषधीय महत्व पीपल का है अन्य किसी वृक्ष का नहीं है यही नहीं पीपल निरंतर दूषित गैसों का विषपान करता रहता है ठीक वैसे ही जैसे शिव ने बिषपान किया था । यह दूषित गैस नष्ट करने हेतु प्राणवायु निरंतर छोड़ता रहता है क्योंकि वृक्ष घना होने के वाबजूद इसके पत्ते कभी भी सूर्य प्रकाश में बाधक नहीं बनते यह छाया देता है किन्तु अंधकार से इसका कोई सरोकार नहीं है संभवत: यही कारण है की सभी अमृत तत्व पाए जाने के कारण महादेव स्वरुप पीपल लैटिन भाषा में पिकस रिलिजियोसा के नाम से जाना जाता है प्राय: प्राचीन दुर्ग भवन या मंदिर में पाए जाने वाले वृक्ष पीपल के निचे शिवलिंग या शिवमंदिर पाया जाना भी स्वाभाविक बात है भारतीय आस्था के अनुसार पीपल के भीतर तीनों देवता ब्रह्मा, बिष्णु और महेश का निवास माना जाता है अत: इसके निचे शिवालय होने पर इसे पीपल महादेव के नाम से भी सम्मानित किया जाता है । भगवान श्री कृष्ण गीता उपदेश में इस वृक्ष की महिमा का बखान करते हुए कहा है कि पीपल पेड़ों में उत्तम और दिव्य गुणों से सम्पन्न है और मैं स्वयं पीपल हूँ। पीपल के औषधिय गुणों का बखान आयुर्वेद में भी देखा जा सकता है। पीपल का वानस्पतिक नाम फ़ाइकस रिलिजियोसा है।
सदैव गतिशील प्रकृति के कारण इसे चल वृक्ष भी कहते है पीपल की आयु संभवत: ९०-१०० सालों के आसपास आंकी गई है इसके पत्ते चिकने , चौड़े या लहरदार किनारे वाले पत्तों की आकृति स्त्री योनि स्वरुप होती है संभवत: इतिज मासिक या गर्भाशय सम्बन्धी स्त्री जनित रोगों में पीपल का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है पीपल की लम्बी आयु के कारण ही बहुधा इसमें दाड़ी निकल आती है इस दाड़ी का आयुर्वेद में शिशु माताजन्य रोग में अद्द्युत प्रयोग होता है पीपल की जड़, शाखाएँ, पत्ते, फल, छाल व पत्ते तोड़ने पर डंठल से उत्पन्न स्राव या तने व शाखा से रिसते गौंद की बहुमूल्य उपयोगिता सिद्ध हुई है। अथर्ववेद में पीपल को अस्वत्थ के नाम से जाना जाता है कहा जाता है की चाणक्य के समय में सर्प विष के खतरे को निष्प्रभावित करने के उद्देश्य से जगह-जगह पर पीपल के पत्ते रखे जाते थे पानी को शुद्ध करने के लिए जल पत्रों में अथवा जलाशयों में ताजे पीपल के पत्ते डालने की प्रथा अति प्राचीन है कुए के समीप पीपल का उगना आज भी शुभ माना जाता है हड़प्पा कालीन सिक्कों पर भी पीपल वृक्ष की आकृति देखने को मिलती है। तंत्र-मन्त्र की दुनिया में भी पीपल का बहुत महत्व है इसे इच्छापूर्ति धनागमन संतान प्राप्ति हेतु तांत्रिक यंत्र के रूप में भी इसका प्रयोग होता है सहस्त्रवार चक्र जाग्रत करने हेतु भी पीपल का महत्व अक्षुण है पीपल भारतीय संस्कृति में अक्षय उर्जा के स्रोत के रूप में बिद्यमान है ।
इसके सूखे फ़ल मूत्र संबंधित रोगों के निवारण के लिये काफ़ी अच्छे होते है। आदिवासी हल्कों में इसकी कोमल जडों को उस महिला को दिया जाता है जो संतान प्राप्ति चाहती हैं। पीपल के फ़ल, छाल, जडों और नयी कलियों को एकत्र कर दूध में पकाया जाता है और फ़िर इसमें घी, शक्कर और शहद मिलाया जाता है, आदिवासियों के अनुसार यह मिश्रण नपुँसकता दूर करता है। पातालकोट जैसे आदिवासी बाहुल्य भागों में जिन महिलाओं को संतान प्राप्ति नहीं हो रही हो, उन्हे पीपल वृक्ष पर लगे वान्दा (रसना) पौधे को दूध में उबालकर दिया जाता है। इनका मानना है कि यह दूध गर्भाशय की गरमी को दूर करता है जिससे महिला के गर्भवती होने की संभावना बढ जाती है। मुँह में छाले हो जाने की दशा में यदि पीपल की छाल और पत्तियों के चूर्ण से कुल्ला किया जाए तो आराम मिलता है। पीपल की एक विशेषता यह है कि यह चर्म-विकारों को जैसे-कुष्ठ, फोड़े-फुन्सी दाद-खाज और खुजली को नष्ट करता है। डाँगी आदिवासी पीपल की छाल घिसकर चर्म रोगों पर लगाने की राय देते हैं। कुष्ठ रोग में पीपल के पत्तों को कुचलकर रोगग्रस्त स्थान पर लगाया जाता है तथा पत्तों का रस तैयार कर पिलाया जाता है।
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