देवलगढ़ का उत्तराखण्ड के इतिहास में अपना एक अलग ही महत्व है। प्राचीन समय में उत्तराखण्ड ५२ छोटे-छोटे सूबों में बंटा था जिन्हें गढ़ के नाम से जाना जाता था और इन्ही ने नाम पर देवभूमि का यह भूभाग गढ़वाल कहलाया। १४वीं शताब्दी में जब राजा अजयपाल चांदपुर गढ़ में सिंहासनारुढ़ हुये तो उन्होने देवलगढ़ जो कि सामरिक दृष्टि से बहुत ही सुरक्षित स्थान था को १५१२ में अपनी राजधानी बनाया। किंतु लगभग ६ वर्ष पश्चात अलकनन्दा के तट पर श्रीनगर में स्थापित किया था । अपने १९ वर्षों के शासनकाल में राजा अजयपाल ने देवभूमि के ४८ गढ़ों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया था। राज राजेश्वरी गढ़वाल के राजवंश की कुलदेवी थी । राज राजेश्वरी मन्दिर देवलगढ़ का सबसे अधिक प्रसिद्ध ऐतिहासिक मन्दिर है। इसका निर्माण १४वीं शताब्दी के राजा अजयपाल द्वारा ही करवाया गया था । गढ़वाली शैली में बने इस मन्दिर में तीन मंजिलें हैं । तीसरी मंजिल के दाहिने कक्ष में वास्तविक मंदिर है। यहां देवी की विभिन्न मुद्राओं में प्रतिमायें हैं। इनमें राज-राजेश्वरी कि स्वर्ण प्रतिमा सबसे सुन्दर है।
इस मन्दिर में यन्त्र पूजा का विधान है। यहां कामख्या यन्त्र, महाकाली यन्त्र, बगलामुखी यन्त्र, महालक्ष्मी यन्त्र व श्रीयन्त्र की विधिवत पूजा होती है। संपूर्ण उत्तराखण्ड में उन्नत श्रीयन्त्र केवल इसी मन्दिर में स्थापित है। मन्दिर के पुजारी द्वारा आज भी यहां दैनिक प्रात:काल यज्ञ किया जाता है। नवरात्रों में रात्रि के समय राजराजेश्वरी यज्ञ का आयोजन किया जाता है। इस सिद्धपीठ में अखण्ड ज्योति की परम्परा पीढ़ियों से चली आ रही है। अत: इसे जागृत शक्तिपीठ भी कहा जाता है।
पौड़ी जनपद में पुरातात्विक दृष्टि से यह सबसे अवलोकनीय स्थान है। यहां पर कई मन्दिर समाधियां और द्वार हैं। इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कांगड़ा से आये राजा देवल ने करवाया था। इसके अलावा यहां नाथ सम्प्रदाय के लोगों की भी समाधियां भी हैं। जिन पर खुदे शिलालेख इनकी प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। इस दुर्लभ मन्दिर समूह को देखकर स्वत: प्रमाणित हो जाता है कि गढ़वाल के राजाओं के समय वास्तुकला, विशेष रूप से मन्दिरों की निर्माण कला अपने चरम उत्कर्ष पर थी।
सत्यनाथ मन्दिर : गौरजा मन्दिर के पीछे कई ओर सत्यनाथ का प्राचीन मन्दिर है। इसको राजा अजयपाल द्वारा निर्मित बताया जाता है। राजा अजयपाल ने इस स्थान पर सत्यनाथ भैरव व राज-राजेश्वरी यन्त्र की स्थापना की थी। इस मन्दिर में कालभैरव, आदित्यनाथ, भुवनेश्वरी व अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां भी प्रतिष्ठापित हैं। लक्ष्मीनारायण मन्दिर: गौरजा मन्दिर के प्रांगण से नीचे उतर कर उसके साथ ही भगवान लक्ष्मीनारायण का मन्दिर है। इसके अन्दर काली शिला की लक्ष्मीनारायण की भव्य मूर्ति विराजमान है। सोमा की माण्डा: गौरा देवी मन्दिर के दक्षिण में "सोमा की माण्डा" नाम से प्रसिद्ध द्वितलीय मण्डप है। कहा जाता है कि राजा अजयपाल इसी मण्डप में बैठकर राजकाज किया करते थे। और अपने गुरू सत्यनाथ भैरव की दिशा में मुख करके ध्यानस्थ होते थे। संरचना व नक्काशी की दृष्टि से यह पाषाणीय मण्डप अपने आप में एकमात्र उदाहरण है। श्रीकृष्ण मंदिर: गौरजा मन्दिर से कुछ ऊपर जाने पर मुरली मनोहर कृष्ण का एक छोटा व सुन्दर सा मन्दिर बना हुआ है। इसमें मुरली बजाते हुये भगवान श्रीकृष्ण की मनोहर मूर्ति प्रतिष्टापित है। किसी समय यह मन्दिर वैष्णवों का महत्वपूर्ण स्थान रहा था। भैरव गुफा: सत्यनाथ मन्दिर के पश्चिम में पहाड़ी से कुछ नीचे उतरकर एक गुफा है इसको भैरवगुफा कहते हैं। गुफा के प्रवेशद्वार पर भैरव की मूर्ति अंकित है। कहा जाता है कि इस गुफा से अलकनन्दा तक प्राचीन समय में एक सुरंग थी। देवलगढ़ की महारानी इस सुरंग मार्ग से प्रतिदिन गंगा स्नान के लिये जाया करती थी। दत्तात्रेय मन्दिर: मुरलीमनोहर मंदिर के ऊपर भगवान दत्तात्रेय का एक छोटा सा मन्दिर है। इसको शिवालय का अखाड़ा भी कहा जाता है। वैष्णवों द्वारा भगवान दत्तात्रेय को विष्णु का अवतार माना जाता है। परन्तु गढ़वाल का शैव सम्प्रदाय दत्तात्रेय को भगवान शिव के प्रतिनिधि के रूप में तथा योगदर्शन के अधिकारी के रुप में करते हैं।
गौरा देवी (गैरजादेवी) मन्दिर की गणना प्राचीन सिद्धपीठों में की जाती है। सातवीं शताब्दी का बना यह पाषाण मन्दिर प्राचीन वास्तुकला का अतुलनीय उदाहरण है। राजराजेश्वरी गढ़वाल के राजवंश की कुलदेवी थी इसलिये उनकी पूजा देवलगढ़ स्थित राजमहल के पूजागृह में होती थी। जनता के लिये एक और मन्दिर की आवश्यकता महसूस करते हुये गौरा मन्दिर का निर्माण कराया गया। निर्माण कार्य उपरान्त होने के पश्चात विषुवत संक्रान्ति (वैशाखी) को सुमाड़ीगांव से श्री राजीवलोचन काला जी की अगुवाई में देवलगढ़ मन्दिर में स्थापित किया गया। इस मन्दिर में शाक्त परंपरा प्रचलित रही है। यहां मुख्यरूप से भगवती गौरी व सिंह वाहिनी देवी कि प्रतिमा स्थापित हैं। यहां से हिमालय का बड़ा मनोहारी दृश्य दिखाई देता है। यह स्थानीय निवासियों की कुलदेवी हैं तथा प्रतिवर्ष बैशाखी को यहां विशाल मेले का अयोजन होता है। दूर दूर से देवी के भक्त आकर यहां इसमें सम्मिलित होते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि कुबेर ने गौरा माता का आशिर्वाद प्राप्त कर इस मन्दिर का निर्माण कराया था। गढ़वाल के राजवशं की कुलदेवी राजराजेश्वरी और सत्यनाथ के लिये प्रसिद्ध देवलगढ़ ६ वर्ष तक गढ़वाल राज्य की राजधानी रह चुका है। जनश्रुति के अनुसार यहां देवल ऋषि का आश्रम हुआ करता था। बाद में गुरू गोरखनाथ के शिष्यों ने यहां सत्त्यनाथ की स्थापना की। कहा जाता है कि गढ़वाल की भूमि गौरा माता का ही आशिर्वाद है। यहां से हिमालय का बड़ा मनोहारी दृश्य दिखाई देता है।
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