संपूर्ण उत्तराखण्ड देवभूमि के नाम से विख्यात है। ऋषि मुनियों की यह पुण्यभूमि आज भी अनेक देवी देवताओं के नाम पर प्रतिष्ठित मन्दिरों को अपनी गोद में आश्रय दिये हुये भारतीय संस्कृति को पोषित कर रही है। प्राचीनकाल से ही भक्तगण अपनी निष्ठा और भावना से अपने ईष्ट की उपासना करते रहते हैं। यहां का जनमानस शाक्त और शैव धर्मावलम्बी रहा है। यही कारण है कि इस तपोभूमि में सर्वत्र शक्तिपीठ एवं शिवालय विद्यमान हैं। उत्तराखण्ड के इन्ही मुक्तिधामों में श्री "क्यूंकालेश्वर महादेव" कि महत्ता अद्वितीय है।
सिद्धपीठ क्यूंकालेश्वर मन्दिर गढ़वाल मुख्यालय पौड़ी में लगभग २२०० मीटर की ऊंचाई पर सघन देवदार, बांज, बुरांस, सुराई आदि वृक्षों से सुशोभित शैल शिखर के रमणीक स्थल पर विद्यमान है। बस स्टेशन पौड़ी से कार, टैक्सी द्वारा लगभग २.५ किमी० का सफ़र तय करके इस रमणीक स्थान तक पहुंचा जा सकता है । यहां से हिमालय की लम्बी पर्वत श्रृंखलाओं की हिमाच्छादित चोटी जिनमें चौखम्बा, त्रिशूल, हाथी पर्वत, नंन्दा देवी, त्रिजुगी नारयण, श्री बद्री केदार क्षेत्र प्रमुख हैं जो कि स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। उत्तराखंड में इस पुण्य स्थान की मनोहरता सुप्रसिद्ध है ।
इस पवित्र स्थल के विषय में स्कन्दपुराण के केदारखण्ड में लिखा है कि यह स्थान कीनाश पर्वत पर स्थित है। यहां यमराज ने। भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी। तदुपरान्त शिवजी ने यमराज को वर देकर कहा कि कलियुग में मैं गुप्तरुप में प्रकट होऊंगा। और मेरा नाम कंकालेश्वर, मुक्तेश्वर आदि होंगें। मैं कलियुग में उपासकों को भक्ति और मुक्ति प्रदान करूंगा। वर्तमान में कंकालेश्वर का अपभ्रशं ही क्यूंकालेश्वर या किंकालेश्वर है। मन्दिर परिसर में विकास को कृत संकल्प मन्दिर के महन्त श्री चैतन्यानन्द जी ने क्यूंकालेश्वर मठ को नया रुप दिया है । जिसके अन्तर्गत श्रद्धालु भक्तगणों एवं धार्मिक पर्यटकों के ठहरने की उचित व्यवस्था है। मन्दिर का सौन्दर्य यहां आने वाले पर्यटकों के लिये किसी आश्चर्य से कम नहीं है। पूर्व में मन्दिर के अतिरिक्त रहन सहन की सारी व्यवस्था मन्दिर परिसर से हटकर २०० गज ऊंची पहाड़ी पर थी जिसके भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं। मन्दिर के सम्मुख धूनी वाले भवन के अतिरिक्त कोई भी भवन नहीं था। यह भवन लगभग २०५ वर्ष प्राचीन बताया जाता है। हरीशर्मा मुनि जी इस क्षेत्र के प्राकाण्ड विद्वानों में गिने जाते थे। उनकी विद्वता के कारण किंग जार्ज पंचम के समय उन्हें "महामहोपाध्याय" की उपाधि से विभूषित किया गया।
कहा जाता है कि उस समय क्षेत्र में वैदिक संस्कृति के के अनुरूप कोई शिक्षण संस्था नहीं थी। वैदिक शिक्षा की नितान्त आवश्यक्ता का अनुभव कर "षाड़ांग वेद शिक्षा" प्रदान करने महन्त हरिशर्मा मुनि जी ने गंगादशहरा बृहस्पतिवार ९ जून १८७० को यहां गुरूकुल पद्धति के अनुरूप संस्कृत विद्यालय की स्थापना की थी । महन्त श्री धर्मानन्द शर्मा मुनि जी के योगदान से इसे १९२८ में क्वींस कालेज (वर्तमान संपूर्णानदं संस्कृत विद्यालय) वाराणसी से संबद्ध करवाया गया। आज भी यह संस्था छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा, भोजन तथा आवास की सुविधा उपलब्ध करवा रही है। मन्दिर तक जाने के दो मार्ग है । पहला कण्डोलिया-रांसी-किंकालेश्वर मार्ग जो कि हल्के वाहनों हेतु उपयुक्त है। दूसरा पैदल मार्ग है जो कि एजेन्सी से प्रारम्भ होकर मंदिर तक पहुंचता है। इसकी लंबाई २ किमी० है। जहां जन्माष्टमी व शिवरात्रि में श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। श्रावण मास के सोमवार के व्रतों में भक्त यहां शिवलिंग में दूध व जल चढ़ाने आते हैं। यह पौराणिक स्थल धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है।
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