प्रकृति की गोद जैसे मनोरम और सुरम्य वातावरण में उत्तरकाशी के सीमान्त क्षेत्र में टौंस नदी के तट पर बसा हनोल स्थित महासू देवता मन्दिर कला और संस्कृति की अनमोल धरोहर है। लम्बे रास्ते की उकताहट और दुर्गम रास्ते से हुई थकान, मन्दिर में पहुंचते ही छूमन्तर हो जाती है और एक नयी ऊर्जा का संचार होता है। "महासू" देवता एक नहीं चार देवताओं का सामूहिक नाम है और स्थानीय भाषा में महासू शब्द "महाशिव" का अपभ्रंश है। चारों महासू भाईयों के नाम बासिक महासू, पबासिक महासू, बूठिया महासू (बौठा महासू) और चालदा महासू है। जो कि भगवान शिव के ही रूप हैं। उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी, संपूर्ण जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता की पूजा होती है। इन क्षेत्रों में महासू देवता को न्याय के देवता और मन्दिर को न्यायालय के रूप में माना जाता है। आज भी महासू देवता के उपासक मन्दिर में न्याय की गुहार और अपनी समस्याओं का समाधान मांगते आसानी से देखे जा सकते हैं। महासू देवता के उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में कई मन्दिर हैं जिनमें अलग अलग रूपों की अलग-अलग स्थानों पर पूजा होती है। टौंस नदी के बायें तट पर बावर क्षेत्र में हनोल में मन्दिर में बूठिया महासू (बौठा महासू) तथा मैन्द्रथ नामक स्थान पर बासिक महासू की पूजा होती है। पबासिक महासू की पूजा टौंस नदी के दायें तट पर बंगाण क्षेत्र में स्थित ठडियार, जनपद उत्तरकाशी नामक स्थान पर होती है।
मन्दिर के पुजारी श्री सूरतराम जोशी और मन्दिर समिति सदस्य श्री बलिराम शर्मा के अनुसार टौंस नदी के बायें तट पर बावर क्षेत्र के हनोल स्थित मन्दिर चारों महासू देवताओं का मुख्य मन्दिर है और इस मन्दिर में मुख्य रूप से बूठिया महासू (बौठा महासू) तथा हनोल से १० किलोमीटर दूर मैन्द्रथ नामक स्थान पर बासिक महासू की पूजा होती है। पबासिक महासू की पूजा टौंस नदी के दायें तट पर बंगाण क्षेत्र में स्थित जनपद उत्तरकाशी के ग्राम ठडियार नामक स्थान पर होती है जो कि हनोल से लगभग ३ किलोमीटर दूर है। सबसे छोटे भाई चालदा महासू भ्रमणप्रिय देवता है जो कि १२ वर्ष तक उत्तरकाशी और १२ वर्ष तक देहरादून जनपद में भ्रमण करते हैं। जिनमें से इनकी एक-एक वर्ष तक अलग-अलग स्थानों पर उपासना होती है जिनमें से हाजा, बिशोई, कोटी कनासर, मशक, उदपाल्टा, मौना आदि उपासना स्थल प्रमुख हैं। पुजारी जी के अनुसार महासु देवताओं के मुख्य धाम हनोल स्थित मन्दिर में सुबह शाम दोनों समय क्रमश: नौबत बजती है और दिया-बत्ती की जाती है। मन्दिर के पुजारी हेतु कठोर नियम होते हैं जिनका पुजारी को पालन करना होता है। पूजनकाल में पुजारी सिर्फ एक समय भोजन करता है। बूठिया महासू के हनोल मन्दिर में निनुस, पुट्टाड़ और चातरा गावं के पुजारी पूजा करते हैं। जबकि मैन्द्रथ स्थित बासिक महासू के मन्दिर में निनुस, बागी और मैन्द्रथ गांव के पुजारी पूजा करते हैं। दोनों मन्दिरों में प्रत्येक गांव के पुजारी क्रम से एक-एक माह तक पूजा करते हैं और इस दौरान उन्हे पूजन हेतू सभी नियमों का पूरी श्रद्धा से पालन करना होता है। टौंस नदी के दायें तट पर जनपद उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र में ठडियार स्थित पबासिक महासू के मन्दिर में केवल डगलू गांव के पुजारी पूजा करते हैं। जैसा की नाम से विदित होता है चालदा महासू भ्रमणप्रिय देव हैं अत: इनकी अलग-अलग स्थानों पर पूजा होती है जिसके लिये निनुस, पुट्टाड़, चातरा और मैन्द्रथ गावों के पुजारी क्रमानुसार देव-डोली के साथ-साथ चलते हैं और इनके उपासना स्थलों पर विधि-विधान से पूजा-अर्चना करते हैं|
हनोल मन्दिर तीन कक्षों में बना हुआ है, मन्दिर में प्रवेश करते ही पहला कक्ष (मण्डप) एक आयताकार हाल है जिसमें बैठकर बाजगी पारंपरिक नौबत बजाते हैं। क्योंकि मन्दिर के मुख्य मण्डप में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है अत: महिलायें इसी कक्ष में बैठकर महासू देवता के दर्शन, पूजा-अर्चना के उपरान्त प्रसाद ग्रहण करती हैं। इस कक्ष की आन्तरिक दीवार पर एक छोटा सा द्वार है जिससे होते हुये केवल पुरुष श्रद्धालु ही मुख्य मण्डप में प्रवेश कर सकते हैं। मुख्य मण्डप एक बड़ा वर्गाकार कमरा है जिसमें बायीं तरफ चारों महासुओं के चारों वीर कफला वीर (बासिक महासू), गुडारु वीर (पबासिक महासू), कैलू वीर (बूठिया महासू) तथा शैडकुडिया वीर (चालदा महासू) के चार छोटे छोटे पौराणिक मन्दिर स्थित हैं। इसी कक्ष में मन्दिर के पुजारी तथा अन्य पश्वा (वे लोग जिन पर महासू देवता अवतरित होकर भक्तों की समस्याओं का समाधान देते हैं) बैठा करते हैं। मन्दिर के इसी कक्ष में गर्भगृह के लिये छोटा सा दरवाजा है जिसके अन्दर केवल पुजारी ही प्रवेश कर सकते हैं। गर्भगृह के अन्दर भगवान शिव के प्रतिरूप महासू देवता की मूर्ति स्थापित है। गर्भगृह में स्वच्छ जल की एक अविरल धारा बहती रहती है। मन्दिर में आये भक्तों को यह जल प्रसाद के रूप में दिया जाता है। इसके अलावा इसी गर्भगृह में एक दिव्य ज्योत सदैव जलती रहती है। मुख्य मन्दिर अर्थात गर्भगृह पूर्णतया पौराणिक है तथा पुरातत्व विभाग के अनुसार इसका छत्र नागरशैली का बना हुआ है। इसके अलावा मण्डप तथा मुख्य मण्डप का निर्माण बाद में किया गया है। इस मन्दिर की निर्माण शैली इसे उत्तराखण्ड के अन्य मन्दिरों से भिन्न तथा विशिष्ट करती है क्योंकि इसके सभी लकड़ी और धातु से निर्मित अलंकृत छतरियों से युक्त हैं। वास्तुकला की दृष्टि से मन्दिर का निर्माण नवीं शताब्दी के आस-पास का माना जाता है।
मन्दिर में प्रसाद के रूप में आटा और गुड़ चढ़ाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में "कढ़ाह" कहते हैं। कढ़ाह के साथ २४ रूपये की भेटं भी चढ़ाई जाती है। कई श्रद्धालु मन्दिर में बकरा भी अर्पित करते हैं। परन्तु बकरा अर्पित करने के दो रूप हैं पहला ये कि बकरे को अभिमन्त्रित जल के साथ सिहरन देकर देवता को अर्पित किया जाता है। अभिमन्त्रित जल के साथ सिहरन देने की यह प्रकिया को स्थानीय भाषा में "धूण" कहलाती है जिसके बाद यह माना जाता है कि देवता ने बकरा स्वीकार कर लिया और उसके बाद उसे जीवित छोड़ दिया जाता है। ये बकरे मन्दिर परिसर और हनोल गांव में यत्र-तत्र घूमते देखे जा सकते हैं। इन बकरों को "घाण्डुआ" कहते हैं और इनको देवता का जीवित भण्डार माना जाता है। अब देवता चाहे तो बेच दे चाहे जैसे उपयोग कर ले लेकिन कभी भी हथियार से नहीं मारा जायेगा। दूसरे रुप में बकरा देवता को अर्पित कर बलि दिये जाने का है। इसके बारे में कुछ लोग कहते हैं अब मन्दिर में बलिप्रथा खत्म कर दी गई है और कुछ लोग कहते हैं कि देवता को अर्पित कर बकरे की बलि मन्दिर परिसर से बाहर दी जाती है। महासू देवता शिव के प्रतिरूप है और शिव को कहीं भी बलि नहीं दी जाती अत: मन्दिर में बकरे की बलि की प्रथा के बारे में पूछने पर पुजारी जी ने बताया कि "पौराणिक कथाओं में महासू देवता की उत्पत्ति के बाद किरविर दैत्य का वध करते समय कैलू वीर ने किरविर दैत्य को आबद्ध किया और शेडकुडिया वीर ने उसका वध किया था इसलिये महासू देवता ने नियम बनाया कि शेडकुडिया वीर को प्रत्येक संक्रांति को रोट और बकरे का गोश्त दिया जायेगा जिसका एक भाग कैलू वीर को भी दिया जायेगा" अत: यह बलिप्रथा/अज अर्पित करने की प्रथा उसी नियम के अनुसार देवता के मांस भक्षी वीरों के निमित्त है।
श्रद्धालुओं हेतु महासू देवता मन्दिर वर्ष भर खुला रहता है। राजधानी देहरादून से मन्दिर तक पहुंचने के तीन रास्ते हैं पहला है देहरादून, विकासनगर, चकराता, त्यूणी होते हुये हनोल जो कि लगभग १८८ किमी है, दूसरा रास्ता देहरादून, मसूरी, नैनबाग, पुरोला, मोरी होते हुये हनोल जो कि लगभग १७५ किमी है। तीसरा रास्ता देहरादून से विकासनगर, छिबरौ डैम, क्वाणू, मिनस, हटाल, त्यूणी होते हुये लगभग १७८ किमी हनोल पहुंचा सकता है। हनोल में यात्रियों के रुकने हेतु एक जी.एम.वी.एन. का रेस्ट हाउस है जिसके लिये यात्री जी.एम.वी.एन. देहरादून प्रभाग से बुकिंग करा सकते हैं। हनोल भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का संगम स्थल होने के साथ-साथ ग्रामीण पर्यटन क्षेत्र के रूप में उभर कर सामने आया है। जौनसार के इस क्षेत्र में हनोल वासियों ने जिस तरह से ग्रामीण पर्यटन का जो माडल हनोल में स्थापित किया है वह काबिल-ए-तारीफ है। हनोल गांव के निवासियों ने अपनी छोटी-छोटी दुकानों को भोजनालय और घरों के कमरों को बहुत ही कम दरों पर किराये पर देना शुरू कर दिया है जिससे आने वाले पर्यटकों को मन्दिर परिसर के आस-पास ही खाने व ठहरने की व्यवस्था मिल जाती है, और उनको रोजगार। कई श्रद्धालु यहां छोटे-छोटे लकड़ी और पत्थरों से बने घरों में रूकने का लुत्फ उठाते है फिर भी यदि किसी को ज्यादा सुविधाओं की आवश्यक्ता हो तो मात्र १६ किमी दूर स्थित त्यूणी बाजार में होटल, रेस्टोरेन्ट्स आदि की अच्छी सुविधायें आसानी से मिल जाती है। मन्दिर की देख-रेख सुरक्षा, प्रबन्धन हेतु ११ सदस्यीय "महासू देवता मन्दिर समिति हनोल" की स्थापना की गई है। हालांकि मन्दिर में किसी तरह की धर्मशाला का प्रबन्ध नहीं है लेकिन मन्दिर समिति की तरफ से यात्रियों हेतु लगभग १० रूपये प्रतिकम्बल/प्रतिरात्रि की बहुत ही सस्ती दरों पर गरम कम्बल किराये पर उपलब्ध कराये जाते हैं। आप जब भी हनोल जायें कृपया कम से कम दो-तीन दिन का कार्यक्रम बनाकर जायें और हनोल मन्दिर के आस-पास स्थित मन्दिरों के भी दर्शन करें और साथ ही चकराता, लाखामण्डल जैसे स्थलों से भी रूबरू होकर आयें। जय महासू देवता।