राष्ट्रीय राजमार्ग ११९ पर कोटद्वार-पौड़ी के मध्य कोटद्वार से लगभग ५४ कि०मी० तथा पौड़ी से ५२ कि०मी० की दूरी पर स्थित है सतपुली। समुद्र तल से ६५७ मीटर की ऊंचाई पर पूर्वी नयार नदी के किनारे स्थित यह छोटा सा पर्वतीय नगर है। नयार नदी को पुराणों में "नावालिका" के नाम से जाना गया है। मान्यता है कि कोटद्वार से इस स्थान तक मार्ग में सात पुल होने के कारण इस स्थान का नाम सतपुली पड़ा। सतपुली मुख्य राजमार्ग पर स्थित है तथा इस क्षेत्र के अन्य बाजारों तथा ग्रामों की अपेक्षाकृत सबसे अधिक विकसित बाजार है अत: यहां से गुजरने वाले सभी वाहन यहां रूकते हैं और यहां यात्रियों हेतु जलपान-भोजन आदि की व्यवस्था हेतु कई छोटे होटल, रेस्टोरेन्ट तथा दुकानें हैं। सतपुली का परिचय वर्ष १९५२ में हुई एक बड़ी तथा हृदय विदारक घटना का वर्णन के बिना सदैव अधूरा सा लगता है। वर्ष १९५२ तक सतपुली अपने बड़े-बड़े खेती योग्य खेतों तथा नदी के किनारे स्थित कुछ छोटी-छोटी झोपड़ीनुमा दुकानों के लिया जाना जाता था। वर्ष १९५२ के वर्षाकाल के समय एक रात नयार नदी में भयानक बाढ़ आई जो अपने साथ नदी किनारे खड़ी जी०एम०ओ०यू० लिमिटेड की बसें उनमें सो रहे कई चालक-परिचालक तथा क्लीनर साथ ही साथ सतपुली बाजार की दुकानें सब बहा ले गई। स्थानीय निवासियों, दुकानदारों ने प्रयास कर सतपुली बाजार को पुन: बसाया तथा जल्दी ही सतपुली एक बार फिर से आबाद हो गया। बाद में स्थानीय निवासियो-व्यापरियों ने मिलकर इस त्रासदी में मारे गये लोगों की याद में सतपुली में बिजलीघर के पास एक शहीद स्मारक का निर्माण किया जिसमें मारे गये लोगों के नाम अकिंत हैं। सतपुली से मात्र १ कि०मी० की दूर सतपुली-ताड़्केश्वर मार्ग पर पूर्वी नयार तथा उत्तर-मुखी नारदगंगा के संगम पर स्थित है दंगलेश्वर महादेव का मन्दिर। आम, पीपल, कनेर व हवन सामग्री में प्रयुक्त होने वाले नाना प्रकार के वृक्षों से आच्छादित यह मन्दिर परिसर शांत, निर्मल वातावरण के लिये प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि मन्दिर के समीप संगम स्थल पर एक विशाल प्राचीन शिला है जिसकी गहराई का कोई अनुमान नहीं है। उस शिला पर ३६४ ज्योतिर्लिंग हैं जो कि १२ वर्षों में एक बार दिखाई देते हैं। मन्दिर में निवास कर रहे बाबा जगदीशनाथ फलाहारी जन्मभूमि डांडांगांव, टिहरी गढ़वाल के अनुसार वर्ष २००५ में उन्हे उन ज्योतिर्लिंगों के दर्शन हुये हैं। बाबाजी इस मन्दिर में वर्ष १९८८ से १९९६ तक रहे उसके बाद दुबारा इस मन्दिर में वर्ष २००५ से नियमित हैं। मन्दिर परिसर में मुख्य शिव मन्दिर के साथ-साथ दुर्गा मन्दिर एवं भैरवनाथ मन्दिर भी है। मन्दिर परिसर में आठ धर्मशालायें हैं। जहां यात्री ठहर सकते हैं परन्तु भोजन की व्यवस्था स्वयं करनी होती है। मकर संक्रान्ति, बसंन्त पंचमी, शिवरात्रि, जन्माष्टमी, बैशाखी के अवसर पर काफी दर्शनार्थी इस मन्दिर में पहुंचते हैं। सावन माह में श्रद्धालुओं द्वारा मूर्तिरूप नदीं बैल भी इस मन्दिर को अर्पित किये जाते हैं। बताया जाता है कि सन् १९४८ के आसपास इस स्थान पर बाबा नागेन्द्रीगिरी महाराज आये थे। उन्होने इस स्थान को प्राकृतिक एवं आद्यात्मिक रूप से काफी समृद्ध बनाया और मन्दिर का जीर्णोद्धार भी कराया। किन्तु सन् १९९८ में कुछ अज्ञात लोगों द्वारा उनकी हत्या कर दी गई उसके बाद एक अन्य पण्डित श्री नैथानी इस स्थान पर ७-८ वर्षों तक रहे उन्होने भी इस स्थान का विकास किया। वर्तमान में श्री जगदीशनाथ ’फलाहारी’ सन् २००५ से इस मन्दिर में नियमित हैं। मन्दिर परिसर में ही चिर समाधिस्थ श्री नागेन्द्रीगिरि जी महाराज की समाधि निर्मित है। यह स्थान एकदम शांत, आद्यात्मिक एवं प्राकृतिक दृष्टि से मनोरम है।
साभार: केदारखण्ड (धर्म, संस्कृति, वास्तुशिल्प एवं पर्यटन)
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