हिन्दू नव बर्ष का स्वागत ऐसे होता था मेरे पहाड़ में
Administrator । April 09, 2015 | पर्व तथा परम्परा |
हिन्दू नव बर्ष का स्वागत ऐसे होता था मेरे पहाड़ में
अंग्रेजी नव वर्ष के शुभ आगमन के उपलक्ष में आज से कुछ वर्ष पहले लोग अपने चित परिचतों और शुभचिंतकों को नव वर्ष की शुभमंगल कामनाएं व्यक्त करने के लिए ग्रीटिंग कार्ड भेजा करते थे । पूरे जनवरी के महीने भर यह सिलसिला चलता रहता था । जो आज लगभग समाप्त हो चुका है । यह कार्यक्रम शहरों, महानगरों और कस्बों में अधिक प्रचलित हुआ करता था । मेरे उत्तराखंड में अंग्रेजी नव वर्ष मुख्यरूप शिक्षाविदों , विद्यार्थियों और कर्मचारियों तक सीमित हुआ करता था ।
इसके विपरीत ग्रामीण उत्तराखंड में नव वर्ष के प्रत्येक सुबह की शुरुवात सुन्दर और भिन्न भिन्न प्रकार के फूलों की महकती खुशबू शुभदर्शनों से हुआ करती थी । प्रातकाल: अपने गाँव वासियों को पुष्प दर्शन करवाने में गाँव की लड़कियों की मुख्य भूमिका होती थी । गाँव की बेटियाँ हर सुबह सूर्य निकलने से पहले अपने गाँव की हर चौखट(देहळी) के दोनों कोनों पर पुष्प विसर्जित किया करती थी, फूल डालते समय उनकी हार्दिक तमन्ना बश मात्र यही होती है हर घर के सदस्यों के सुबह की शुरुवात सुन्दर फूलों के दर्शन से ही हो । कितना पुण्य भाव होता है उनके मन में !!!! फूलों में मुख्य रूप से बुराँस, फ्यूंली, ग्वीराळ(कचनार) तथा पलाश(मंदार) अत्यंत ही पवित्र माने जाते थे इसके अतिरिक्त भौगोलिक आधार पर उपलब्ध अन्य फूल भी फ़ुलारियों द्वारा हर आँगन मंर अपने रीती रिवाजों के आधार पर डाले जाते रहें हैं । यह पावन कार्य पूरे महीने भर चला करता है और इसकी समाप्ति बैंसाखी यानी बिखौंत के दिन एक महापर्व के रूप में हुआ करती है । इस दिन गाँव के बड़े बुजुर्ग पवित्र गंगा में स्नान करने जाते थे । बैंसाखी के दिन समापन पर घर-घर में स्वाळ व पकौड़ी के अलावा अनेक स्वादिष्ट व्यंजन बना करते थे । फूल डालने वाली सभी लड़कियों का मान सम्मान विधिवत रूप से पूरे गाँव के लोग उनके इस पुण्य कार्य के लिए अलग- अलग रूप से किया करते थे । यह रिवाज मेरे गाँव में पचलित नही था, मुझे मेरी श्रध्येय माता जी ने बताया था कि चैत महीने में उनके मायके में ऐसा कुछ होता है जो कि मुझे बहुत अच्छा लगा था तो मैंने अपनी छोटी बहन और गाँव की अन्य बहनों के सहयोग से इसकी शुरुवात करने का फैसला कर लिया था । इसके साथ ही साथ कई गाँवों में थड़िया गीत और चौफला भी गाये जाते थे ।
इसके अतिरिक नव वर्ष को अन्य रूप से भी मनाया जाता रहा है नव वर्ष की शुरुवात हर परिवार के घर आँगन में अपने पवित्र वाद्य-यंत्र ढोल और दमांऊँ (रॉंन्टी ) की थाप से होती थी। ढोल-दमांऊँ पवित्र मौकों पर ही हमारे घर गाँव में अधिकतर बजाया जाता है । उत्तराखंड में सामाजिक ताना -बाना विद्वानो और विचारकों ने बहुत ही सुनियोजित और योजनावद्ध रूप से अनादिकाल से संघटित किया हुआ था । सुख दुःख के दोनों अवसर पर प्रत्येक परिवार में ब्राह्मण(कुल पुरोहित) और औजी की उपस्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाया करती थी । समाज के इन दोनों ही वर्गों को उनका कार्य क्षेत्र सुव्यवस्थित रूप से आबंटित हुआ करता था जिसे ग्रामीण भाषा में उनकी विर्ती(कार्यक्षेत्र) भी कहा जाता था । परन्तु नव वर्ष की खुशियों को हर घर घर और गाँव गाँव तक पंहुँचाने के लिए चैत्र(चैत) के महीने में औजी अपनी विर्ति में ही नही अपितु हर गाँव में जाने को स्वतंत्र हुआ करते थे । औजियों को गाँव वाले अपनी क्षमतानुसार हर प्रकार के अन्न और दक्षिणा दिया करते थे और वे लोग अपनी दीशा-ध्याणी की मंगल कामना ह्रदय से करते थे , यह पूरा क्रिया कलाप महीने भर क्षेत्र में चलता था और अंतिम दिन यानी बैंसाखी(बिखौंत) के दिन औजी टोकरी में जौ की हरियाळी अपनी अपनी विर्ती में देने जाते थे इस हरियाळी को गाय के शुद्ध गोबर के साथ गाँव का हर परिवार अपने घर की चौखट के दोनों कोनें पर लगा देता था इसके साथ ही कुछ लोग जौ की हरियाली को अन्न धनं के भण्डार में भी रखा करते थे जिसे शुभ सूचक माना जाता था ।
आज की पीढ़ी को शायद ही ये सब देखने सुनने को मिलता होगा ? कितनी विशाल और मंगलमयी कामनाओं के साथ मेरी जन्म भूमि उत्तराखंड में नव वर्ष का आगाज अतीत में हुआ करता था । आज पलायन के कारण अधिकतर गाँव खाली हो चुके हैं सभी रीति रिवाज और परम्पराएँ सिकुड़ती और सिमट कर रह गई हैं । पेशेवर लोगों ने काफी हद तक अपना पेशा ही छोड़ दिया है और सब कुछ इतिहास बनता जा रहा है ।
कितने आनंदमय और मंगलमय हुआ करते थे वे दिन !!!! आज की पीढ़ी सुन कर उन्हें कपोल कल्पित रूप में शायद देखती होगी ।
लेख साभार : श्री सी०पी० कण्डवाल, चित्र साभार : गूगल
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