कोटद्वार भाबर क्षेत्र की प्रमुख एतिहासिक धरोहरों में कण्वाश्रम सर्वप्रमुख है जिसका पुराणों में विस्तृत उल्लेख मिलता है। हजारों वर्ष पूर्व पौराणिक युग में जिस मालिनी नदी का उल्लेख मिलता है वह आज भी उसी नाम से पुकारी जाती है। तथा भाबर के बहुत बड़े क्षेत्र को सिंचित कर रही है। कण्वाश्रम शिवालिक की तलहटी में मालिनी के दोनों तटों पर स्थित छोटे-छोटे आश्रमों का प्रख्यात विद्यापीठ था। यहां मात्र उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा थी इसमें वे शिक्षार्थी प्रविष्ट हो सकते थे जो सामान्य विद्यापीठ का पाठ्यक्रम पूर्ण कर और अधिक अध्ययन करना चाहते थे। कण्वाश्रम चारों वेदों, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष, आयुर्वेद, शिक्षा तथा कर्मकाण्ड इन ६ वेदांगों के अध्ययन-अध्यापन का प्रबन्ध था। आश्रमवर्ती योगी एकान्त स्थानों में कुटी बनाकर या गुफाओं के अन्दर रहते थे।
यह कण्वाश्रम कण्व ऋषि का वही आश्रम है जहां हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला के प्रणय के पश्चात "भरत" का जन्म हुआ था, कालान्तर में इसी गढ़वाली खस नारी शकुन्तला पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। शकुन्तला ऋषि विश्वामित्र व अप्सरा मेनका की पुत्री थी
इस क्षेत्र की प्राचीनता के संबन्ध में अन्य पौराणिक प्रसंगों का भी उल्लेख है। पाण्डवों के पूर्वज शकुन्तला और भरत तत्कालीन कुलिन्द जनपद के निवासी थे। तथा यहां के कुलिन्दराज राजा सुबाहु से पाण्डवों की विशेष मैत्री थी । कण्वाश्रम के कुछ ऊपर कांण्डई गांव के पास आज भी एक प्राचीन गुफा विद्यमान है जिसमें ३०-४० व्यक्ति एक साथ निवास कर सकते हैं। ईड़ा गांव के पास शून्य शिखर पर आज भी संन्यासियों का आश्रम है । चौकीघाट से कुछ दूरी पर किमसेरा (कण्वसेरा) की चोटी पर भग्नावशेष किसी आश्रम या गढ़ का संकेत देते हैं । हर वर्ष बसंत पंचमी के अवसर पर कण्वाश्रम में तीन दिन तक मेला चलता है । महाकवि कालिदास द्वारा रचित "अभिज्ञान शाकुन्तलम" में कण्वाश्रम का जिस तरह से जिक्र मिलता है वे स्थल आज भी वैसे ही देखे जा सकते हैं।
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