भगवान शिव के १५ अवतरों में भैरवगढ़ी का नाम भी आता है। और इन्ही कालभैरव का सुप्रसिद्ध धाम भैरवगढ़ी है। लैन्सडाऊन से लगभग १७ किलोमीटर दूर राजखील गांव की पहाड़ी पर यह देवस्थल स्थित है। इस स्थल पर कालनाथ भैरव की नियमित पूजा होती है। कालनाथ भैरव को सभी चीजें काली पसंद होती हैं यही कारण है कि कालनाथ भैरव के लिये मण्डवे के आटे का रोट प्रसाद के रूप में बनाते हैं।
गढ़वाल के रक्षक के रूप में अर्थात द्वारपाल के रूप में भैरव (भैरों) का बहुत बड़ा महत्व माना गया है। भैरव के अनुयायी पुजारी और साधक भैरवगढ़ी की चोटी पर जाकर साधना कर आज भी सिद्धि प्राप्त करते हैं । इस स्थान का अपना एक एतिहासिक महत्व भी है। भैरवगढ़ गढ़वाल के ५२ गढ़ों में से एक है और इसका वास्तविक नाम लंगूरगढ़ है। संभवतया लांगूल पर्वत पर स्थित होने के कारण इसे लंगूरगढ़ कहा गया है। लंगूरगढ़ सन १७९१ तक बहुत शक्तिशाली गढ़ था । दो वर्ष तक गोरखों की फौज ने इसे जीतने के लिये घेराबन्दी की थी २८ दिनों तक निरंतर संघर्ष के उपरान्त भी गोरखा पराजित हुये और वापस चले गये थे । थापा नामक एक गोरखे ने लंगूरगढ़ में भैरव की महिमा को देखते हुये वहां ताम्रपत्र चढ़ाया था इस ताम्रपत्र का वजन एक मन (४० किलो) का बताया जाता है ।
यहां भैरव की गुमटी पर ही मन्दिर बना हुआ है। गुमटी के बाहर बायें हिस्से में शक्तिकुण्ड है। यहां भक्तों के द्वारा चांदी के छत्र चढ़ाये जाते हैं। यहां श्रद्धालु भक्तजन नित्य ही पहुंचते हैं। यहां नवविवाहित वर वधु भी मनौतियां मांगने पहुंचते हैं
गढ़वाल के प्राचीन शिवमदिरों में ताड़केश्चर महादेव का अति महत्व है। पौड़ी जनपद के जयहरीखाल विकासखण्ड के अन्तर्गत लैन्सडौन डेरियाखाल - रिखणीखाल मार्ग पर स्थित चखुलाखाल नामक गांव से लगभग ४ किमी० की दूरी पर समुद्रतल से लगभग ६००० ...