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गढ़वाली भाषा व संस्कृति के लिए पौड़ी के लोक कलाकारों का योगदान

Tribhuwan UniyalSeptember 04, 2013 | भाषा व संस्कृति

"तू होलि बीरा, उंचि-निसि डांड्यूं,
घसियार्यूं का बेस मा।
खुदमा तेरी सड़क्यूं मा मी, रूणूं छौं परदेश मा।
सर-सर हव्वा आणी होली, बदरीनाथ का डांडौं मा।
तू होलि बीरा......!"

वर्ष १९४९ में लोकगायक जीतसिंह नेगी की आवाज में ग्रामोफोन पर मुम्बई में रिकार्ड होकर पहली बार जब यह सुमधुर गीत गढ़वाल की वादियों में गूंजा तो यहां का जन-जन आह्लादित हो उठा। उत्तराखण्ड की लोकभाषाओं को जिंदा रखे जाने के सवाल पर बहस छिड़ी है, संविधान की आठवीं अनुसूची में इन भाषाओं को शामिल किए जाने की वकालत भी जोर-शोर से हो रही है। मांग उठ रही है कि गढ़वाल व कुमांऊ क्षेत्र में राज-काज की भाषा रही क्षेत्रीय बोलियों को भाषा का दर्जा दिया जाए, इन भाषाओं को रोजगार व शिक्षा से जोड़ा जाए, इन भाषाओं के सृजनशीलों को प्रोत्साहित किया जाए। उत्तराखण्ड में तेजी से हुए पलायन के साथ यहां की क्षेत्रीय बोली-भाषाओं का भी क्षरण हुआ है, गांवों की बोली और सांस्कृतिक पहचान मिटने को है, ऐसे में लोकगायकी व सिनेमा का संस्कृति-समाज और भाषा को बचाए रखने में अहम योगदान है। किसी भी राष्ट्र, भाषा, संस्कृति व क्षेत्र के उत्थान में दृश्य व श्रव्य प्रचार माध्यमों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, गढ़वाल के लोक को भी सिनेमा व लोकगायकी ने प्राण दिया है, प्रदेश भर में इस योगदान में पौड़ी जिला हमेशा अग्रणी रहा है, लोक गायकी में श्री जीतसिंह नेगी व सिनेमा जगत में पारेश्वर प्रसाद गौड़ ने इस इतिहास का शुभारम्भ किया। वर्ष १९२५ में पौड़ी जिले के अयाल गांव में जन्में श्री जीतसिंह नेगी ने गढ़वाली गीत गायन वर्ष १९४७-४८ में शुरू किया। गढ़वाली गीत और सिनेमा ही हैं जिसने गढ़वाली भाषा को काल कवलित होने से बचा रखा है। श्री नेगी के गीतों में  उत्तराखण्ड के सामाजिक ताने-बाने के साथ ही प्रकृति व स्त्री-पुरुष के संबधों की तहजीब प्रस्तुत की गई है। वर्ष १९४९ में ही ग्रामोफोन पर रिकार्ड हुए एक और गीत की वानगी कि :    

घास काटीकी प्यारी छैला,
रुमुक ह्वेगे घौर ऐ जादी।
दूदी का नौना की हिंगरी खियीं चा,
घौर ऐ जादी।

यही नहीं आकाशवाणी से जब सैनिकों के लिए कार्यक्रम शुरु हुआ तो उत्तराखण्ड से जीतसिंह नेगी को ही उस कार्यक्रम में पहला गीत गाने का अवसर मिला। संयोग देखिए कि गीतों के माध्यम से अपनी दुधबोली को जिंदा रखे हुए ख्यातिलब्ध लोक गायकों में पौड़ी जनपद का अपना भरा-पूरा इतिहास है। लोकगायकी के प्रमुख स्तम्भ केशवदास अनुरागी चौंदकोट, चन्द्रसिंह राही चौंदकोट, नरेन्द्रसिंह नेगी पौड़ी गांव, भगवती प्रसाद पोखरियाल ढांगू, जगदीश बकरोला कल्जीखाल के अलावा संतोश खेतवाल, गिरीश सुंदरियाल, कल्पना चौहान, मंजु सुंदरियाल, अनिल बिष्ट आदि-आदि नाम पौड़ी से ही हैं। जागर विधा के पांरगतो में चन्द्रसिंह राही के पिता दिलबर सिंह, सुदामा दास व कुलानंद जुयाल भी पौड़ी जिले में ही जन्में हैं। लोक गायकी के बूते ही हम आज अपनी भाषाओं को मरने से रोके हुए हैं, इस विधा में लोकगायक नरेंन्द्र सिंह नेगी का योगदान सर्वोपरि है। सन् १९७४ सावन के महीने चौड़पुर देहरादून के एक मिशनरी अस्पताल में अपने पिताजी के आंखों के आपरेशन के दौरान नंगी चारपाई में लेटे-लेटे नरेन्द्रसिंह नेगी के मन में अपनी धरती अपने गांव की यादे कुलांचे भरने लगी तो उन्होंने वहीं जमीन पर पड़े एक कागज के टुकड़े पर शब्द उतारकर अपनी गीत-जात्रा शुरू कर दी।

सैर्या बसगाल बूंण मा, रूड़ी कुटण मा,
ह्यूंद पीसी बीतैनी, म्यारा सदानी यनी दिन रैनी।

और उसके बाद एक के बाद एक उनके गीत और कैसेट्स गढवाली संस्कृति की धरोहर बनने लगीं। १९७७-७८ में उन्होंने आकाशवाणी लखनऊ व नजीबाबाद से गीत गाने शुरू किए, १९८२ से हर साल एक आडियो कैसेट बाजार में उतारी। इसी तरह उत्तराखण्डी सिनेमा जगत में भी पौड़ी ने ही पहली पहल की, वर्ष १९८२-८३ में असवालस्यूं मिरचोड़ा गांव निवासी पारेश्वर गौड़ की गढ़वाली फिल्म `जग्वाल` से फिल्मों का सिलसिला शुरू हुआ। उसके बाद आली-भ्यूंली के बंदेश नौडियाल की गढ़वाली फिल्म `कबि-सुख, कबि-दुख`, चौंदकोट के एस.एस.रावत की वीडियो फिल्म समलौंण जैसी दर्जनों फिल्मों के निर्माण का सिलसिला शुरू हुआ।



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Comments

1

| September 28, 2013
I miss my uttarakhand.. Pauri garhwal...

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