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सिद्धिपीठ चन्द्रबदनी

AdministratorAugust 08, 2013 | अध्यात्म

भारत वर्ष समूचे संसार में धार्मिक, आध्यात्मिक एवं साँस्कृतिक दृष्टि से अनन्य स्थान रखता है। निःसृत गंगा, यमुना भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं आधात्म की संवाहिका है। हिमालय क्षेत्र उत्तराखण्ड की भूमि, देव भूमि, देवस्थान, देवस्थल, स्वर्ग भूमि, पार्वती क्रीड़ा स्थल, यक्ष किन्नरों का आवास एवं ऋषिमुनियों की तपस्थली आदि नामों से विख्यात समस्त मानव जाति में पूज्य है। अल्हड़ भागीरथी, अलकनन्दा, भिलंगना, बालगंगा आदि का प्रवाह कल-कल का निनाद करती हुई इस क्षेत्र की विशेषताओं को मैदानों में बिखेरती है। धार्मिक, साँस्कृतिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक एवं पर्यटन की दृष्टि से उत्तराखण्ड का यह क्षेत्र एक अनन्य स्थानों में से एक है। तीर्थ धाम, मठ, मंदिर एवं शक्ति सिद्धपीठों से भरपूर इस क्षेत्र ने विश्व में अपना नाम प्रतिस्थापित किया है। ऐसे ही सि(पीठों में चन्द्रकूट पर्वत पर अवस्थित उत्तराखण्ड का शक्ति सिद्धपीठ है-चन्द्रबदनी।

चन्द्रबदनी मंदिर काफी प्राचीन है। जनश्रुति है कि आदि जगत गुरु शंकराचार्य जी ने श्रीनगरपुरम् (श्रीनग) जो श्रृंगीऋषि की तपस्थली भी रही है, श्रीयंत्र से प्रभावित होकर अलकनन्दा नदी के दाहिनी ओर उतंग रमणीक चन्द्रकूट पर्वत पर चन्द्रबदनी शक्ति पीठ की स्थापना की थी। मंदिर में चन्द्रबदनी की मूर्ति नहीं है। देवी का यंत्र (श्रीयंत्र) ही पुजारीजन होना बताते हैं। मंदिर गर्भ गृह में एक शिला पर उत्कीर्ण इस यंत्र के ऊपर एक चाँदी का बड़ा छत्र अवस्थित किया गया है।
पद्मपुरण के केदारखण्ड में चन्द्रबदनी का विस्तृत वर्णन मिलता है। मंदिर पुरातात्विक अवशेष से पता चलता है कि यह मंदिर कार्तिकेयपुर, बैराठ के कत्यूरी व श्रीपुर के पँवार राजवंशी शासनकाल से पूर्व स्थापित हो गया होगा। इस मंदिर में किसी भी राजा का हस्तक्षेप होना नहीं पाया जाता है। सोलहवीं सदी में गढ़वाल में कत्यूरी साम्राज्य के पतन के पश्चात् ऊचूगढ़ में चैहानों का साम्राज्य था। उन्हीं के पूर्वज नागवंशी राजा चन्द्र ने चन्द्रबदनी मंदिर की स्थापना की थी। जनश्रुति के आधार पर चाँदपुर गढ़ी के पँवार नरेश अजयपाल ने ऊचूगढ़ के अन्तिम राजा कफू चैहान को परास्त कर गंगा के पश्चिमी पहाड़ पर अधिकार कर लिया था। तभी से चन्द्रकूट पर्वत पर पँवार राजा का अधिपत्य हो गया होगा। 1805 ई0 में गढ़वाल पर गोरखों का शासन हो गया। तब चन्द्रबदनी मंदिर में पूजा एवं व्यवस्था निमित्त बैंसोली, जगठी, चैंरा, साधना, रित्वा, गोठ्यार, खतेली, गुजेठा, पौंसाड़ा, खाखेड़ा, कोटी, कंडास, परकण्डी, कुनडी आदि गाँवों की भूमि मिली थी। केदारखण्ड के अध्याय 141/27 से स्पष्ट होता है यथा-
दृष्ट्वा तां चन्द्रबदनां विश्वानन्दन तत्पराम्।
उत्न पूर्ण घटस्थां च कोटिबालार्कसान्निभाम्।।
पौराणिक कथाओं के अनुसार माँ सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में दुखी होकर हवन कुण्ड में आत्मदाह कर दिया था। दुखित शिव हवनकुण्ड से माँ सती का कंकाल अपने कंधे पर रखकर कई स्थानों में घूमने लगे। जब शिव कंधे पर माँ सती का कंकाल कई दिन तक लिये रहे तो भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से शिव के कंधे से माँ सती के कंकाल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। इस तरह हिमालय प्रदेश में माँ सती के अंग कई स्थानों पर बिखर गये। जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे वे पवित्र शक्तिपीठ हो गये। ये शक्तिपीठ मानव जाति के लिए पूज्य हैं। चन्द्रमुखी देवी सती का बदन ही चन्द्रबदनी के रूप में विख्यात है।
चन्द्रबदनी माँ सती का ही रूप है। सती का शव ढोते-ढोते शिवजी स्वयं निर्जीव हो गये थे तथा चन्द्रकूट पर्वत पर आने पर शिव अपने यथार्थ रूप में आ गये। वास्तव में शक्तिस्वरूपा पार्वती के अभाव में शिव निर्जीव हो गये थे। पार्वती ही उन्हें शक्ति व मंगलकारी रूप में प्रतिष्ठित कर जगदीश्वर बनाने में सक्षम हैं। दुर्गा सप्तसती के देव्यपराधक्षमापन स्तोत्रम में उल्लेख है-
चिताभस्मा लेपो गरलमशनं दिक्पटधारी
जटाधारी कण्ठे भुजग पतिहारी पशुपतिः
कपाली भूतेशो भजति जगदीशशैकपदवी
भवानी त्वत्पाणिग्रहण परिपाटीफलमिदम्।
ऋग्वेद में ईश्वर के मातृ रूप को अदिति कहा गया है, जो विश्व का समूल आधार है। ऋग्वेद के अनुसार आदिति स्वर्ग एवं मृत्युलोक के मध्य जो धूलोक है, वहाँ भी विद्यमान है। शक्ति का लौकिक अर्थ बल व सामथ्र्य से ही है। आध्यात्मिक जगत में ब्रहम् परमात्मा व चिति आदि शक्ति के ही नाम है। वेदान्त में अविद्या, माया व प्रकृति भी इसी को कहते हैं।
चन्द्रबदनी मंदिर 8वीं सदी का होना माना जाता है। चूंकि उत्तरी भारत के इतिहास में चैथी सदी से 12वीं सदी तक मंदिरों का युग कहा जाता है। गढ़वाल के केदारनाथ, कालीमठ, आदिबद्री, गोपीनाथ, विश्वनाथ, पलेठी, गोमुख आदि प्राचीन मंदिर एक ही शैली के माने जाते है। चन्द्रबदनी के उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों जिनमें शिव-गौरी की कलात्मक पाषाण मूर्ति से प्रतीत होता है कि चन्द्रबदनी मंदिर भी इन्हीं मंदिरों में से एक है। महा घुमक्कड़ी कवि राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें सातवीं, आठवीं सदी का ही बताया है तथा डॉ0 शिव प्रसाद डबराल ने इन मंदिरों को गुप्तकाल का होना बताया है।
सन् 1803 ई0 में गड़वाल मण्डल में भयंकर भूकम्प आया था, जिससे यहाँ के कई मंदिर ध्वस्त हो गये थे। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार 1742-43 में रूहेलों ने धार्मिक स्थलों को तहस-नहस कर दिया था। समय काल एवं परिस्थितियों के चलते इन मंदिरों में आमूलचूल परिवर्तन होते गये और आज स्वामी मन्मथन के अथाह प्रयास के फलस्वरूप माँ चन्द्रबदनी का मंदिर एक भव्य मंदिर के रूप में प्रसिद्धी है। यहाँ पर लोगों द्वारा अठ्वाड़ (पशुबलि) दी जाती थी, किन्तु स्वामी जी व स्थानीय समाजसेवी लोगों द्वारा सन् 1969 ई0 में पशुबलि प्रथा समाप्त कर दी गयी। आज मंदिर में कन्द, मेवा, श्रीफल, पत्र-पुष्प, धूप अगरबत्ती एवं चाँदी के छत्तर श्रधालुओं द्वारा भेंटस्वरूप चढ़ाया जाता है।
मंदिर में माँ चन्द्रबदनी की मूर्ति न होकर श्रीयंत्र ही अवस्थित है। किवंदती है कि सती का बदन भाग यहाँ पर गिरने से देवी की मूर्ति के कोई दर्शन नहीं कर सकता है। पुजारी लोग आँखों पर पट्टी बाँध कर माँ चन्द्रबदनी को स्नान कराते हैं। जनश्रुति है कि कभी किसी पुजारी ने अज्ञानतावश अकेले में मूर्ति देखने की चेष्टा की थी, तो पुजारी अंधा हो गया था।
चन्द्रबदनी का नाम चन्द्रबदनी कैसा पड़ा? इसमें कई मतभेद हैं। चन्द्रकूट पर्वत पर सती के बदन की अस्थि गिरने से चन्द्रबदनी नाम पड़ा हो, क्योंकि सती चन्द्रमा के समान सुन्दर थी। या नागों के राजा चन्द्र द्वारा स्थापना करने पर चन्द्रबदनी सार्थक सिद्ध नहीं होता है। मेरी दृष्टि में सती के बदन की अस्थि चन्द्रकूट पर्वत पर गिरने से चन्द्रबदनी नाम पड़ा होगा, क्योंकि माँ सती चन्द्रमा के समान सौम्य व सुन्दर थी।
सिद्धपीठ चन्द्रबदनी जनपद टिहरी के हिण्डोलाखाल विकासखण्ड में समुद्रतल से 8000 फिट की ऊँचाई पर चन्द्रकूट पर्वत पर अवस्थित है। स्कन्दपुराण के केदारखण्ड में इसे भुवनेश्वरीपीठ नाम से भी अभिहित किया गया है। स्वामी मन्मथन जी ने सन् 1977 ई0 में इसी के नाम से अंजनीसैंण में श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम की स्थापना भी की है, जहाँ पर बहु आयामी कार्य किये जाते हैं। इस आश्रम के होने से इस क्षेत्र का बड़ा विकास हुआ है और कई जनजागरण कार्यक्रमों के चलते यहाँ पर विकास की और भी सम्भावनायें परिलक्षित होती हैं।
विभिन्न नामों से प्रसिद्ध शैल पुत्री ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कुष्माण्डा, स्कन्धमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिधिदात्री देवी की नवरात्रियों में जौ;मवद्ध की हरियाली बोकर इस अवसर पर दुर्गा सत्पसती का पाठ किया जाता है। चैत्र, आश्विन में अष्टमी व नवमी के दिन नवदुर्गा के रूप में नौ कन्याओं को जिमाया जाता है। मंदिर के पुजारी पुजार गाँव के भट्ट लोग तथा पाठार्थी के रूप में सेमल्टी लोग भी सहायता करते है। जनश्रुति है कि माँ भगवती अरोड़ा नामक स्थान के समीप एक कुण्ड में नित्यप्रति स्नान करने जाती है। ये अदृश्य कुण्ड भक्तिपूर्वक ही देखा जा सकता है। मंदिर में चोरखोली काफी विख्यात है। इसके अतिरिक्त भोगशाला, सतसंग भवन, पाठशाला, भण्डारगृह, कैण्टीन, सिंहद्वार, परिक्रमा पथ देखने योग्य हैं।
चन्द्रबदनी मंदिर बांज, बुरांस, काफल, देवदार, सुरई, चीड़ आदि के सघन सुन्दर वनों एवं कई गुफाओं एवं कन्दराओं के आगोश में अवस्थित है। चन्द्रबदनी में पहुँचने पर आध्यात्मिक शान्ति मिलती है। अथाह प्राकृतिक सौन्दर्य, सुन्दर-सुन्दर पक्षियों के कलरव से मन आनन्दित हो उठता है। चित्ताकर्ष एवं अलौकिक यह मंदिर उत्तराखण्ड के मंदिरों में अनन्य है। यहाँ से चैखम्भा पर्वत मेखला, खैट पर्वत, सुरकण्डा देवी, कुंजापुरी, मंजिल देवता, रानीचैंरी, नई टिहरी, मसूरी आदि कई धार्मिक एवं रमणीक स्थल दिखाई देते हैं। वन प्रान्त की हरीतिमा, हिमतुंग शिखर, गहरी उपत्यकायें, घाटियां व ढलानों पर अवस्थित सीढ़ीनुमा खेत, नागिन सी बलखाती पंगडंडियां, मोटर मार्ग, भव्य पर्वतीय गाँवों के अवलोकन से आँखों को परम शान्ति की प्राप्ति होती है। श्रधालुओं के लिए नैखरी में गढ़वाल मण्डल विकास निगम को पर्यटक आवास गृह, अंजनीसैंण में श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के अलावा कई होटल व धर्मशालाएं भी हैं। यहाँ जाने के लिए पहुँच मार्ग ऋषिकेश से 106 किमी0 देवप्रयाग होते हुए व पुरानी टिहरी से 47 कि0मी0 दूरी पर है। काण्डीखाल से सिलौड़ गाँव होते हुए 8 कि0मी0 पैदल यात्रा तय करनी पड़ती है।

निष्कर्षतः सिद्धपीठ चन्द्रबदनी में जो भी श्रद्धालु भक्तिभाव से अपनी मनौती माँगने जाता है, माँ जगदम्बे उसकी मनौती पूर्ण करती है। मनौती पूर्ण होने पर श्रद्धालु जन कन्दमूल, फल, अगरबत्ती, धूपबत्ती, चुन्नी, चाँदी के छत्तर चढ़ावा के रूप में समर्पित करते हैं। वास्तव में चन्द्रबदनी मंदिर में एक अलौकिक आत्मशान्ति मिलती है। इसी आत्म शान्ति को तलाशने कई विदेशी, स्वदेशी श्रद्धालुजन माँ के दर्शनार्थ आते हैं। अब मंदिर के निकट तक मोटर मार्ग उपलब्ध है। प्राकृतिक सौन्दर्य से लबालब चन्द्रकूट पर्वत पर अवस्थित माँ चन्द्रबदनी भक्तों के दर्शनार्थ हरपल प्रतीक्षारत है।

साभार : डा0 सत्यानन्द बडोनी [http://www.vakdhara.com]



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Comments

1

Saurav Bisht | July 23, 2018
Jai maa chandrabadni

2

data painuli | June 14, 2017
jai jai maa chandar badani

3

Gambhir Singh Rautela | September 03, 2013
oldest tample in uttrakhand.

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