कण्डोलिया देवता वस्तुत: चम्पावत क्षेत्र के डुंगरियाल नेगी जाति के लोगों के इष्ट "गोरिल देवता" है। कहा जाता है कि डुंगरियाल नेगी जाति के पूर्वजों ने गोरिल देवता से यहां निवास करने का अनुरोध किया था जिन्हे वे पौड़ी गांव अपने साथ लाये थे। ये लोग अपनी वृद्धावस्था के कारण अपने इष्टदेव को "कण्डी" में लाये थे। पहले उन्होने इनकी स्थापना पौड़ी गांव के पंचायती चौक में की थी लेकिन यह स्थान गहराई में होने के कारण गोरिल देवता ने स्वयं को शिखर पर स्थापित करने को कहा। इसके उपरान्त पौड़ी नगर के शीर्ष शिखर पर देवता की स्थापना की गई तथा स्थानीय क्षेत्रपाल के रूप में देवता की पूजा की जाने लगी। कहा जाता है कि क्योंकि इनको यहां कण्डी में लाया गया था अत: इनको "कन्डोलिया देवता" के नाम से जाना जाने लगा। कालान्तर में आसपास का क्षेत्र भी कण्डोलिया के नाम से पहचाना जाने लगा। स्थानीय जन समाज में कण्डोलिया देवता की बोलन्दा देवता के रुप में पूजा की जाती है। मान्यता है कि गोरिल अर्थात कण्डोलिया देवता किसी घटना या विपत्ति का पूर्वाभास होते ही सारे नगर को आवाज लगाकर सचेत कर देते थे। कण्डोलिया देवता के मन्दिर में दूर दूर से आकर भक्तजन मन्नत मांगते हैं। कण्डोलिया मंदिर में कई वर्ष पूर्व स्थानीय निवासियों ने मिलकर भण्डारे के आयोजन की शुरुआत की थी। यही भण्डारा अब विस्तृत मेले का रूप ले चुका है जिसमें सभी वर्गों के लोग शामिल होते हैं। धार्मिक आस्था के प्रतीक इस मन्दिर में जून माह में होने वाले त्रिदिवसीय वार्षिक भण्डारे में स्थानीय व प्रवासी श्रद्धालुओं द्वारा आवश्यक रूप से उपस्थिति दर्ज की जाती है। पौड़ी शहर से २ किलोमीटर की दूरी पर प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण स्थान पर यह मन्दिर स्थित है। प्राकृतिक सौन्दर्य से अनुपम इस क्षेत्र में ऊंचे ऊंचे चीड़, देवदार, बांज, बुरांश, काफल इत्यादि के सघन वृक्ष हैं। जिला प्रशासन द्वारा मन्दिर के समीप ही पार्क विकसित किया है। नगर से नियमित रुप से समय-समय पर इस स्थान तक पहुंचने के लिये टैक्सी, बस सेवा चलती रहती है। साभार : वीरेन्द्र खंकरियाल [पौड़ी और आस पास]
किसी नाम के आगे ईश्वर लगाकर उसको किसी देवी-देवता की उपाधि से विभूषित कर देना हिन्दू संस्कृति की पुरानी परंपरा है। रामायण काल के मूक साक्षी सितोन्स्यूं क्षेत्र में जहां मनसार का मेला लगता है, से एक फर्लांग की दूरी पर तीन नद...
बस स्टेशन पौड़ी से कुछ ही दूरी पर स्थित "लक्ष्मीनारायण मन्दिर" की स्थापना १४-फरवरी-१९१२ संक्रान्ति पर्व पर की गई थी। इस मन्दिर में स्थापित लक्ष्मी और नाराय़ण की मूर्ति सन् १९१२ पूर्व विरह गंगा की बाढ़ आने के उ...
पौड़ी से ३७ किमी दूर स्थित है नागराजा मन्दिर। उत्तराखण्ड के गढ़वाल मण्डल में जिस देवशक्ति की सर्वाधिक मान्यता है वह है भगवान कृष्ण के अवतार के रूप में बहुमान्य नागराजा की। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब भगवान कृष्ण को यह क्ष...
संपूर्ण उत्तराखण्ड देवभूमि के नाम से विख्यात है। ऋषि मुनियों की यह पुण्यभूमि आज भी अनेक देवी देवताओं के नाम पर प्रतिष्ठित मन्दिरों को अपनी गोद में आश्रय दिये हुये भारतीय संस्कृति को पोषित कर रही है। प्राचीनकाल से ही भक्तगण...
देवलगढ़ का उत्तराखण्ड के इतिहास में अपना एक अलग ही महत्व है। प्राचीन समय में उत्तराखण्ड ५२ छोटे-छोटे सूबों में बंटा था जिन्हें गढ़ के नाम से जाना जाता था और इन्ही ने नाम पर देवभूमि का यह भूभाग गढ़वाल कहलाया। १४वीं शताब्दी में...
पौड़ी बस स्टेशन से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर कण्डोलिया-बुवाखाल मार्ग पर स्थित है घने जंगल के मध्य स्थित है "नागदेव मंदिर"। प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण घने बांज, बुरांश तथा गगनचुम्बी देवदार, चीड़ के वृक्षों के...