आदेश्वर महादेव मन्दिर "रानीगढ़" पहुंचने के लिये पौड़ी मुख्यालय से कण्डोलिया होते हुये पौड़ी-कांसखेत-सतपुली मोटर मार्ग पर लगभग १८ कि०मी० का सफर तय करके अदवानी नामक एक छोटे से गांव तक आना पड़ता है। यह पूरा क्षेत्र गढ़वाल वन प्रभाग के आरक्षित वन क्षेत्र में आता है। आदवानी में मन्दिर का प्रवेश द्वार स्थित है यहां से मन्दिर तक पहुंचने के लिये अदवानी से का लगभग १ कि०मी० का सफर बांज, बुरांश, काफल, देवदार तथा चीड़ के घने जंगल में सीढ़ीनुमा पगडण्डी रास्ते से गुजरते हुये पैदल ही तय करना पड़ता है। समुद्रतल से १८०० मीटर की उंचाई पर पर्वत की चोटी पर स्थित यह स्थान अपनी नैसर्गिक सुन्दरता के प्रसिद्ध है। इस स्थान से उत्तराखण्ड की सुरम्य छटा देखने को मिलती है। रानीगढ़ से चन्द्रबदनी, सुरकण्डा, कुंजापुरी, नीलकंठ, डांडा नागराजा, खैरालिंग (मुण्डनेश्वर महादेव), बिंदेश्वर, एकेश्वर महादेव, ताड़केश्वर, भैरवगढ़ी आदि स्थानों के नयनाभिराम दर्शन होते हैं। रानीगढ़ स्थित आदेश्वर महादेव मन्दिर का वास्तु सामान्य तथा स्थानीय गढ़वाली मन्दिरों की भांति हैं। मंदिर के अन्दर एक शिवलिंग स्थापित है तथा शिव, गणेश सहित शिवपरिवार की प्रतिमायें रखी हैं। इस मन्दिर का जीर्णोद्धार वर्ष २००२ में स्थानीय लोकनायक श्री शिवसिंह पटवाल ग्राम खपरोली ने करवाया था। मुख्य मन्दिर से थोड़ा पीछे हटकर एक छोटा सा मैदान है जिसे कि हाथी-मैदान के नाम से जाना जाता है। इस मैदान के किनारे-किनारे तीन-चार छोटे-छोटे प्राचीन मन्दिरों के अवशेष स्थित हैं जो कि गढ़वाल के मकानों की तरह पत्थर की लगभग डेढ़-दो फीट मोटी दीवारों के बने हैं, इन मन्दिरो कें कुछ प्राचीन मूर्तियां रखी हुई हैं जो संभवतया इस स्थान की प्राचीनता का साक्ष्य हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से रानीगढ़ की गढ़वाल के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्राप्त जानकारी के अनुसार सन् १८०४ में गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में बगावत के हालात हो गये थे। उस समय राजा "उपेन्द्रशाह" की पटरानी "राजमाता छजोली" अपने चार वर्षीय पुत्र "प्रद्द्युमन शाह" को लेकर सेनापति पुरिया नैथानी के नेतृत्व में इस पर्वत शिखर पर आकर एक लंबे समय तक अज्ञातवास में रहीं थी। इसी कारण इस स्थान को रानीगढ़ के नाम से जाना गया। सेनापति पुरिया नैथानी समीप स्थित ग्राम नैथाना के निवासी थे और संभवतया उन्होने इस पर्वत शिखर की निर्जनता के कारण इस स्थान को अबोध राजकुमार तथा रानी के आज्ञातवास हेतु उपयुक्त समझा होगा। आज भी रानीगढ़ के ठीक नीचे स्थित "छजोलीधार" नामक स्थान, रानी "छजोली" के नाम से ही जाना जाता है। कहा जाता है कि राजकुमार के साथ खेलने हेतु उस समय एक हाथी भी यहां लाया गया था। संभवतया मन्दिर परिसर के पीछे का हाथी मैदान तथा उसमें उगने वाली हाथी घास इसी बात का साक्ष्य है अन्यथा उत्तराखण्ड में अन्यत्र कहीं भी किसी पर्वतीय शिखर पर इस तरह की हाथी घास नहीं होती है। रानीगढ़ की देखरेख तथा सुरक्षा के दायित्व हेतु "रानीगढ़ पर्यटन विकास समिति" की स्थापना की गई है। रानीगढ़ से सन् २००२ से प्रतिवर्ष मेले का भी आयोजन किया जा रहा है जिसमें बड़ी संख्या में स्थानीय लोग सम्मिलित होते हैं।
कण्डोलिया देवता वस्तुत: चम्पावत क्षेत्र के डुंगरियाल नेगी जाति के लोगों के इष्ट "गोरिल देवता" है। कहा जाता है कि डुंगरियाल नेगी जाति के पूर्वजों ने गोरिल देवता से यहां निवास करने का अनुरोध किया था जिन्हे वे पौड़ी ...
बस स्टेशन पौड़ी से कुछ ही दूरी पर स्थित "लक्ष्मीनारायण मन्दिर" की स्थापना १४-फरवरी-१९१२ संक्रान्ति पर्व पर की गई थी। इस मन्दिर में स्थापित लक्ष्मी और नाराय़ण की मूर्ति सन् १९१२ पूर्व विरह गंगा की बाढ़ आने के उ...
सीता और लक्ष्मणजी सितोन्स्यूं क्षेत्र की जनता के प्रमुख अराध्य देव हैं। देवल गांव में शेषावतार लक्ष्मण जी का एक अति प्राचीन मन्दिर है। इसके चारों और छोटे बड़े ११ प्राचीन मन्दिर और हैं। इन बारह मन्दिरों की संरचना और उनमें स्...
पौड़ी से ३७ किमी दूर स्थित है नागराजा मन्दिर। उत्तराखण्ड के गढ़वाल मण्डल में जिस देवशक्ति की सर्वाधिक मान्यता है वह है भगवान कृष्ण के अवतार के रूप में बहुमान्य नागराजा की। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब भगवान कृष्ण को यह क्ष...
पौड़ी शहर से ९ किलोमीटर की दूरी पर पौड़ी-देवप्रयाग राजमार्ग पर आंछरीखाल नामक स्थान पर स्थित है मां वैष्णो देवी का मन्दिर। धार्मिक एवं दर्शनीय पर्यटन के लिये यह स्थान काफी रमणीक है। यहां से हिमालय की विस्तृत दृश्यावली के साथ ...
पौड़ी बस स्टेशन से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर कण्डोलिया-बुवाखाल मार्ग पर स्थित है घने जंगल के मध्य स्थित है "नागदेव मंदिर"। प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण घने बांज, बुरांश तथा गगनचुम्बी देवदार, चीड़ के वृक्षों के...