ऋषिकेश लक्ष्मणझूला से लगभग २३ किलोमीटर यमकेश्वर मार्ग पर गरूड़चट्टी से कुछ आगे चलकर पीपलकोटी (नीलकण्ठ डाईवर्जन) के पास बायीं तरफ स्थित पर्वत के शिखर पर एक भव्य मन्दिर के दर्शन होते हैं, यह मन्दिर मां बालकुमारी के नाम से जाना जाता है। मन्दिर तक पहुंचने के लिये पीपलकोटी से यमकेश्वर मार्ग पर लगभग आधा किलोमीटर बाद ईड़िया नामक एक छोटे से गांव से सड़क के नीचे की तरफ एक पैदल रास्ता जाता है, जिस पर लगभग एक किलोमीटर पैदल चलकर मन्दिर तक पहुंचा जा सकता है। लगभग तीन सौ मीटर पैदल चलकर मन्दिर का मुख्यद्वार दिखता हैं यहां से मन्दिर तक पहुंचने के लिये लगभग ४०० सीढ़ियां हैं। पर्वत के शिखर पर एक छोटे से निर्जन मैदान में स्थित इस मन्दिर परिसर के शांत तथा मनोरम वातावरण में पहुंचते ही मार्ग की सारी थकान दूर हो जाती है। मन्दिर परिसर में खड़े होकर आप विस्तृत पर्वत श्रृखंलाओं तथा आस-पास के क्षेत्र के नयनाभिराम दर्शन कर सकते हैं। मन्दिर के नीचे एक तरफ आमड़ी गांव तथा दूसरी तरफ ग्योंठ गांव दिखाई देता है साथ ही एक तरफ नीलकण्ठ क्षेत्र से यमकेश्वर विकासखण्ड का काफी बड़ा भूभाग तथा एक तरफ हेंवल नदी की मनोरम घाटी दिखाई देती है।
मन्दिर के पुजारी श्री माधवराम कपूरवाण ग्राम आमड़ी से प्राप्त विवरण के अनुसार इस मन्दिर की स्थापना लगभग १५० वर्ष पहले की गई थी। मान्यता है कि आमड़ी ग्राम के किसी वृद्ध चरवाहे को माता ने यहां पिण्डी रूप में दर्शन दिये थे जिसके बाद यहां एक छोटे से मन्दिर की स्थापना कर दी गई थी। उसके बाद लगभग ४० वर्ष पूर्व मन्दिर का जीर्णोद्धार करके यहां माता बालकुमारी का बड़ा मन्दिर बनाया गया। वर्ष २००५ में पुराने मन्दिर का पुन: जीर्णोद्धार किया गया साथ ही गणेश, शिवजी तथा माता काली के तीन मन्दिर बनाये गये। हालांकि यह मन्दिर आधुनिक मन्दिरों की तरह ही बना है लेकिन २००५ के बाद इस पूरे मन्दिर परिसर की भव्यता तथा विशालता देखते ही बनती है।
मन्दिर की व्यवस्था/प्रबन्धन आमड़ी गांव के युवा स्वयं देखते हैं इसके लिये किसी प्रकार की कोई समिति गठित नहीं की गई है। मन्दिर परिसर में रामनवमी तथा शरदीय नवरात्र की नवमी के दिन भण्डारा तथा मेले का अयोजन होता है जिसमें दूर-दूर से श्रद्धालु आकर माता के दर्शन कर कृतार्थ होते हैं। वर्ष भर मन्दिर में नवविवाहित युगल आकर माता के दर्शन करते हैं तथा सुखमय वैवाहिक जीवन हेतु आशिर्वाद लेकर जाते हैं।
हालांकि मन्दिर के पुजारी श्री माधवराम कपूरवाण जी ने इस मन्दिर का किसी पौराणिक सन्दर्भ/विवरण से अनभिज्ञता बताई लेकिन नीलकण्ठ मन्दिर के समीप इसका एक पर्वत शिखर पर स्थित होना तथा शिव तथा सती के समाधिकाल के दौरान अन्य देवी-देवताओं का इस क्षेत्र में आकर भिन्न-भिन्न पर्वत शिखरों पर बैठकर हजारों वर्षों तक तपस्या करने वाली घटना के कारण इस स्थान के पौराणिक होने में सन्देह नहीं किया जा सकता। वास्तविकता चाहे कुछ भी रही हो परन्तु नि:सन्देह इस तरह के स्थान उत्तराखण्ड में आने वाले पर्यटकों का सदैव ध्यान आकर्षित कर उत्तराखण्ड को गौरवान्वित करते रहे हैं।
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