शिवभक्तों का दुर्गम तीर्थस्थल- नीलकण्ठ महादेव, ऋषिकेश, उत्तराखण्ड
नीलकण्ठ महादेव की गणना उत्तर भारत के मुख्य शिवमन्दिरों में की जाती है संभवतया इसीलिये भगवान नीलकण्ठ महादेव सर्वाधिक लोकप्रिय व महत्वपूर्ण है। नीलकण्ठ महादेव का मन्दिर जनपद पौड़ी के यमकेश्वर विकासखण्ड के अन्तर्गत गांव पुण्डारस्यूं पट्टी तल्ला उदयपुर में स्थित है। तीर्थनगरी ऋषिकेश से नीलकण्ठ तक पहुंचने के दो मार्ग हैं। सड़क मार्ग से नीलकण्ठ जाने के लिये स्वर्गाश्रम रामझूला टैक्सी स्टैण्ड से लक्ष्मणझूला, गरूड़चट्टी होते हुये यमकेश्वर-दुगड्डा मार्ग द्वारा लगभग ३२ किलोमीटर का रास्ता तय करना पड़ता है। दूसरा लगभग १२ किलोमीटर का पैदल मार्ग है। श्री नीलकण्ठ महादेव जी के मन्दिर जाने के लिये लक्ष्मण झूला के पास से स्थानीय टैक्सी मिलती है जिसके द्वारा यात्री बहुत ही कम समय मे नीलकण्ठ पहुँच जाते हैं। नीलकण्ठ तक पैदल यात्रा करने हेतु स्वर्गाश्रम के उत्तरी पार्श्व से एक मार्ग जाता है, इस मार्ग से आगे जाने पर पर्वत की तलहटी से लगा हुआ समतल मार्ग चिल्लाह-कुन्हाव को जाता है। उसी मार्ग पर डेढ किलोमीटर चलने पर एक पहाडी झरना आता है। उस झरने को पार करते ही उस मार्ग को छोड़कर बायीं ओर मुड जाना पडता है। वहां पर तीर के निशान सहित श्री नीलकण्ठ महादेव जी के नाम का बोर्ड लगा हुआ है। तीर के निशान द्वारा उसी दिशा की ओर आगे बढ कर श्री नीलकण्ठ महादेव जी का वास्तविक मार्ग आरम्भ होता है। इस मार्ग पर डेढ किलोमीटर आगे चलने पर नीचे की ओर स्वर्गाश्रम, लक्ष्मण झूला एवं गंगा जी का दॄश्य बहुत सुन्दर दिखाई देता है। लगभग दो किलोमीटर आगे चलने पर पानी का एक छोटा सा तालाब आता है इसमे पहाडी से पानी हर समय बूंद बूंद निकलता रहता है इसमे बारहों महीने पानी रहता है। इसको बीच का पानी कहते है। यह पानी स्वर्गाश्रम तथा श्री नीलकण्ठ महादेव जी के मध्य मे माना जाता है यहाँ से दो किलोमीटर आगे चलने पर पानी की टंकी आती है। यहॉ पर चाय की दुकान रहती है यहां अक्सर यात्रीगण विश्राम हेतु रुकते हैं यहां से चढ़ाई समाप्त हो जाती है। यहां से लगभग २०० मीटर की दूरी चलने पर पर्वतों के शिखरो के परस्पर मिलने से बने हुए एक छोटे से मैदान में पहुंच जाते हैं। यहां पूर्वाभिमुख खडे होने पर बांई ओर मणिकूट पर्वत, दाहिनी ओर विष्णुकूट पर्वत ओर सम्मुख ब्रह्मकूट पर्वत के शिखर पर श्री भुवनेश्वरी पीठ एवं तीनो पर्वतों के संधिमूल में श्री नीलकण्ठ महादेव जी दिखाई देते है। गंगा जी के प्रवाह से मणिकूट पर्वत की उंचाई ४५०० फिट है। मणिकूट पर्वत शिखर से लगभग १५०० फिट गहराई पर श्री नीलकण्ठ महादेव जी का मन्दिर है। मन्दिर परिसर में पहुंचने पर नीलकण्ठ महादेव के भव्य मन्दिर के दर्शन होते हैं। मध्यकालीन स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण श्री नीलकण्ठ महादेव देवालय लगभग ३०० वर्ष पूर्व निर्मित किया गया है। द्राविड़ (दक्षिण भारतीय वास्तुकला शैली) के अनुरूप इस मन्दिर की साज सज्जा एवं भव्यता अति विशिष्ट है। सभामन्डप से शिखर तक तक इसकी ऊंचाई ५१ फीट आंकी जाती है। मन्दिर के गर्भगृह में स्वयंभू शिवलिंग धातु निर्मित नाग से आच्छादित है। सभामण्डप में नन्दी महाराज ध्यानस्थ मुद्रा में विराजमान हैं। वर्तमान में यह स्थान धार्मिक, अध्यात्मिक तथा प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से विशेष स्थान पा रहा है। मधुमती तथा पंकजा नामक नदियों के निर्मित जलकुण्ड में स्नान कर यात्री तरोताजा होते हैं। स्थान की अध्यात्मिकता, मन्दिर एवं कल्प वृक्ष की विशालता इस स्थल के गौरव को विशेष समृद्ध बनाती है। यहां पर शिवर्चन, रूद्रपाठ, हवन आदि का विशेष महात्मय है। श्रावण मास में भक्तों के अतिरिक्त श्री नीलकण्ठ महादेव को जल अर्पित करने हजारों की संख्या में कांवड़िये पहुचते हैं। इस स्थान विशेष को अष्टसिद्धि एवं वाणी की सिद्धि को प्रदान करने वाला पुण्य क्षेत्र कहा गया है।
इस स्थान की उत्पत्ति के बारे में पुराणों में एक कथा प्रचलित है कि एक बार देवताओं तथा असुरों ने मिलकर मंदरांचल पर्वत को मथनी बनाकर तथा नागराज वासुकी को रस्सी की तरह प्रयोग कर समुद्र मंथन किया था जिसमें चौदह रत्न (१- लक्ष्मी, २-कौस्तुभ मणि, ३-कल्पवृक्ष, ४-सुरा, ५-धन्वन्तरी, ६-चन्द्रमा, ७-कामधेनु गाय, ८-ऐरावत हाथी, ९-रम्भा तथा अन्य अप्सरायें, १०-उच्चै:श्रवा नामक अश्व, ११-कालकूट विष, १२-शांर्ग-धनुष, १३-दक्षिणावर्ती शंख, १४-अमृत) निकले थे। मंथन से जब भयंकर हलाहल कालकूट विष प्राप्त हुआ तो उसकी विषैली लपटों से जलचरादि सभी प्राणी व्याकुल हो उठे। सृष्टि को विनाश की ओर अग्रसर देख सभी जीव भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पर पहुंचे तथा इस विपदा से मुक्ति दिलाने की विनती करने लगे। कृपालु भगवान शिव ने कालकूट विष को लेकर उसे पीना शुरू कर दिया परन्तु उसे अपने कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया तथा कंठ में ही रख लिया। विष के प्रभाव से उनका कण्ठ नीलवर्ण हो गया तथा भगवान भोलेनाथ नीलकण्ठ कहलाये। विषपान के पश्चात भगवान शिव विष की ऊष्णता से व्याकुल होने लगे। विकलता के वशीभूत होकर भगवान कैलाश पर्वत छोड़कर एकांत और शीतल स्थान की खोज में निकल पड़े। समस्त हिमालय पर्वत पर विचरण करते हुये महादेव मणिकूट पर्वत पर आये। यहां मणिकूट, विष्णुकूट, ब्रह्मकूट पर्वतों के मूल में मधुमनी (मणिभद्रा) व पंकजा नन्दिनी (चन्द्रभद्रा) नदियों की धाराओं के संगम पर पुष्कर नामक तीर्थ के समीप एक वट वृक्ष के मूल में समाधिस्थ होकर कालकूट विष की ऊष्णता को शांत करने लगे। कहा जाता है कि भगवान शिव ने इस स्थान पर ६० हजार वर्षों तक समाधिस्थ रहकर विष की ऊष्णता को शांत किया था। समाधि के उपरान्त जगद्धात्री मां सती की प्रार्थना पर प्रसन्न होकर जगत का कल्याण करने के लिये भगवान महादेव जिस वटवृक्ष के मूल में समाधिस्थ हुये थे उसी स्थान पर स्वयंभू-लिंग के रुप में प्रकट हुये। इस लिंग का सर्वप्रथम पूजन मां सती ने किया था कालांन्तर में यही स्थान नीलकण्ठ महादेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा आज भी मन्दिर में स्थित शिवलिंग पर नीला निशान दिखाई देता है।
वर्तमान में मन्दिर की व्यवस्था प्रबन्धन तथा पूजा-अर्चना श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी कनखल द्वारा संचालित है। मन्दिर में शिवरात्रि के अवसर पर तीन दिवसीय मेला चलता है जिसमें दूर दूर से श्रद्धालु आकर भगवान नीलकंठ के दर्शन कर कृतार्थ होते है। श्रावण मास में यहां एक माह तक कांवड़ मेला चलता है जिसमें जिसमें उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, बिहार, राजस्थान, दिल्ली, पंजाब, मध्य-प्रदेश से लाखों की संख्या में कावड़िये आकर भगवान का जलाभिषेक करते हैं। मन्दिर परिसर में यात्रियों के विश्राम/ठहरने हेतु धर्मशाला है। जो कि श्रावण मास के दौरान चलने वाले कांवड़ मेले को छोड़कर वर्षपर्यन्त उपलब्ध रहती है। मंदिर से कुछ ही दूरी पर गढ़वाल मंडल विकास निगम का विश्राम गृह भी स्थित है। मंदिर परिसर के आस-पास भोजन, जलपान आदि की दुकाने हैं। तीर्थनगरी ऋषिकेश के समीप होने से यात्रियों को विश्राम, ठहरने, भोजन तथा जलपान आदि की समस्या नहीं होती है।
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