शनिदेव : परमकल्याण कर्ता एवं न्याय के देवता
Administrator । May 09, 2013 | अध्यात्म |
धर्मग्रंथो के अनुसार सूर्य की द्वितीय पत्नी के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ, जब शनि देव छाया के गर्भ में थे तब छाया भगवान शंकर की भक्ति में इतनी ध्यान मग्न थी की उसने अपने खाने पिने तक शुध नहीं थी जिसका प्रभाव उसके पुत्र पर पड़ा और उसका वर्ण श्याम हो गया। शनि के श्यामवर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया की शनि मेरा पुत्र नहीं हैं। तभी से शनि अपने पिता से शत्रु भाव रखता हैं। शनि देव ने अपनी साधना तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्य की भाँति शक्ति प्राप्त की और शिवजी ने शनिदेव को वरदान मांगने को कहा, तब शनिदेव ने प्रार्थना की कि युगों युगों में मेरी माता छाया की पराजय होती रही है, मेरे पिता पिता सूर्य द्वारा अनेक बार अपमानित व प्रताड़ित किया गया है। अतः माता की इच्छा है कि मेरा पुत्र अपने पिता से मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने। तब भगवान् शंकर ने वरदान देते हुए कहा कि नवग्रहों में तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ स्थान होगा। मानव तो क्या देवता भी तुम्हरे नाम से भयभीत रहेंगे।
शनि को सन्तुलन और न्याय का ग्रह माना गया है.जो लोग अनुचित बातों के द्वारा अपनी चलाने की कोशिश करते हैं,जो बात समाज के हित में नही होती है और उसको मान्यता देने की कोशिश करते है, अहम के कारण अपनी ही बात को सबसे आगे रखते हैं, अनुचित विषमता, अथवा अस्वभाविक समता को आश्रय देते हैं, शनि उनको ही पीडित करता है। शनि हमसे कुपित न हो, उससे पहले ही हमे समझ लेना चाहिये कि हम कहीं अन्याय तो नही कर रहे हैं या अनावश्यक विषमता का साथ तो नही दे रहे हैं। यह तपकारक ग्रह है अर्थात तप करने से शरीर परिपक्व होता है। शनि का रंग गहरा नीला होता है। शनि ग्रह से निरंतर गहरे नीले रंग की किरणें पृथ्वी पर गिरती रहती हैं। शरीर में इस ग्रह का स्थान उदर और जंघाओं में है। सूर्य पुत्र शनि दुख दायक, शूद्र वर्ण, तामस प्रकृति, वात प्रकृति प्रधान तथा भाग्य हीन नीरस वस्तुओं पर अधिकार रखता है। शनि सीमा ग्रह कहलाता है, क्योंकि जहां पर सूर्य की सीमा समाप्त होती है, वहीं से शनि की सीमा शुरु हो जाती है। जगत में सच्चे और झूठे का भेद समझना शनि का विशेष गुण है। यह ग्रह कष्टकारक तथा दुर्दैव लाने वाला है। विपत्ति, कष्ट, निर्धनता, देने के साथ साथ बहुत बडा गुरु तथा शिक्षक भी है, जब तक शनि की सीमा से प्राणी बाहर नही होता है, संसार में उन्नति सम्भव नही है। शनि जब तक जातक को पीडित करता है, तो चारों तरफ़ तबाही मचा देता है। जातक को कोई भी रास्ता चलने के लिये नही मिलता है। अच्छे और शुभ कर्मों बाले जातकों का उच्च होकर उनके भाग्य को बढाता है। जो भी धन या संपत्ति जातक कमाता है, उसे सदुपयोग मे लगाता है, गृहस्थ जीवन को सुचारु रूप से चलायेगा। साथ ही धर्म पर चलने की प्रेरणा देकर तपस्या और समाधि आदि की तरफ़ अग्रसर करता है। अगर कर्म निन्दनीय और क्रूर है, तो नीच का होकर भाग्य कितना ही जोडदार क्यों न हो हरण कर लेगा, शनि के विरोध मे जाते ही जातक का विवेक समाप्त हो जाता है, निर्णय लेने की शक्ति कम हो जाती है, प्रयास करने पर भी सभी कार्यों मे असफ़लता ही हाथ लगती है। स्वभाव मे चिडचिडापन आजाता है, नौकरी करने वालों का अधिकारियों और साथियों से झगडे, व्यापारियों को लम्बी आर्थिक हानि होने लगती है, विद्यार्थियों का पढने मे मन नही लगता है, बार बार अनुत्तीर्ण होने लगते हैं। जातक चाहने पर भी शुभ काम नही कर पाता है। दिमागी उन्माद के कारण उन कामों को कर बैठता है जिनसे करने के बाद केवल पछतावा ही हाथ लगता है।
शनि की मणि नीलम है। प्राणी मात्र के शरीर में लोहे की मात्रा सब धातुओं से अधिक होती है, शरीर में लोहे की मात्रा कम होते ही उसका चलना फ़िरना दूभर हो जाता है.और शरीर में कितने ही रोग पैदा हो जाते हैं.इसलिये ही इसके लौह कम होने से पैदा हुए रोगों की औषधि खाने से भी फ़ायदा नही हो तो जातक को समझ लेना चाहिये कि शनि खराब चल रहा है.शनि मकर तथा कुम्भ राशि का स्वामी है.इसका उच्च तुला राशि में और नीच मेष राशि में अनुभव किया जाता है.इसकी धातु लोहा, अनाज चना, और दालों में उडद की दाल मानी जाती है.
शनिदेव परमकल्याण कर्ता न्यायाधीश और जीव का परमहितैषी भी माना जाता है। ईश्वर पारायण प्राणी जो जन्म जन्मान्तर तपस्या करते हैं, तपस्या सफ़ल होने के समय अविद्या, माया से सम्मोहित होकर पतित हो जाते हैं, अर्थात तप पूर्ण नही कर पाते हैं, उन तपस्विओं की तपस्या को सफ़ल करने के लिये शनिदेव परम कृपालु होकर भावी जन्मों में पुन: तप करने की प्रेरणा देता है। द्रेष्काण कुन्डली मे जब शनि को चन्द्रमा देखता है, या चन्द्रमा शनि के द्वारा देखा जाता है, तो उच्च कोटि का संत बना देता है। और ऐसा व्यक्ति पारिवारिक मोह से विरक्त होकर कर महान संत बना कर बैराग्य देता है। शनि पूर्व जन्म के तप को पूर्ण करने के लिये प्राणी की समस्त मनोवृत्तियों को परमात्मा में लगाने के लिये मनुष्य को अन्त रहित भाव देकर उच्च स्तरीय महात्मा बना देता है ताकि वर्तमान जन्म में उसकी तपस्या सफ़ल हो जावे। और वह परमानन्द का आनन्द लेकर प्रभु दर्शन का सौभाग्य प्राप्त कर सके.यह चन्द्रमा और शनि की उपासना से सुलभ हो पाता है। शनि तप करने की प्रेरणा देता है और शनि उसके मन को परमात्मा में स्थित करता है.कारण शनि ही नवग्रहों में जातक के ज्ञान चक्षु खोलता है.
वैदूर्य कांति रमल:, प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:।
अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥
भावार्थ:-शनि ग्रह वैदूर्यरत्न अथवा बाणफ़ूल या अलसी के फ़ूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है, तो उस समय प्रजा के लिये शुभ फ़ल देता है यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है, तो उच्च वर्णों को समाप्त करता है, ऐसा ऋषि महात्मा कहते हैं।
शनिदेव को खुश करने के लिए शनिवार के दिन मुंह अंधेरे उठ कर स्नान करें ,शनि मंदिर में जाकर शनि देव को नीले लाजवन्ती के फूल,काले तिल,वस्त्र, काली उड़द दाल,तेल, गुड़ चढ़ाए,धूप,दीप जलाकर शनि बीज मंत्र का जाप करें
ऊं प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम ऊं शं शनिश्चराय नम
पूजा समापन कर राहु और केतु की पूजा करें,फिर पीपल पर जल चढ़ाए और पीपल पर सूत्र बांधकर सात बार परिक्रमा करें। शाम को शनि मंदिर में जाकर दीप भेंट करें और उड़द दाल की खिचड़ी बनाकर शनि महाराज को प्रशाद चढ़ाए फिर उसी खिचड़ी को भोजन के रूप में खाएं शनिवार के दिन काली चींटियों को गुड़ एवं आटा देना चाहिए। काले रंग के वस्त्र धारण करें,शनिवार के दिन 108 तुलसी के पत्तों पर जय श्री राम लिखकर,पत्तों को सूत्र में पिरो कर माला बना कर श्री हरि विष्णु के गले में डालें। साढ़सती वालों के लिए यह राम बाण का काम करता है फिर शानि देव जी की आरती करें। इस प्रकार भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक शनिवार के दिन शनिदेव का व्रत एवं पूजन करने से शनि का कोप शांत होता है और शनि की दशा के समय उनके भक्तों को कष्ट की अनुभूति नहीं होती है।
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