स्वास्तिक का अर्थ है शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला। स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि । यह शुभ प्रतीक अनादि काल से विद्यमान होकर सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। स्वास्तिक की आकृति भगवान श्रीगणेश का प्रतीक तथा विश्वधारक विष्णु एवं सूर्य का आसन माना जाता हैं। स्वास्तिक को भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व प्राप्त हैं। स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है, पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे वैयाकरण कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है। यह स्वास्तिक पद ’सु’ उपसर्ग तथा ’अस्ति’ अव्यय (क्रम ६१) के संयोग से बना है,इसलिये ’सु+अस्ति=स्वास्ति’ इसमें ’इकोयणचि’सूत्र से उकार के स्थान में वकार हुआ है। ’स्वास्ति’ में भी ’अस्ति’ को अव्यय माना गया है और ’स्वास्ति’ अव्यय पद का अर्थ ’कल्याण’ ’मंगल’ ’शुभ’ आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब स्वास्ति में ’क’ प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप धारण कर लेता है और उसे ’स्वास्तिक’ का नाम दे दिया जाता है।
देवताओं के चारों ओर घूमने वाले आभामण्डल का चिन्ह ही स्वास्तिक होने के कारण व देवताओं की शक्ति का प्रतीक हैं, इसलिए शास्त्रों में उसे शुभ तथा कल्याणकारी माना गया हैं। हिन्दू जीवन पद्धति में तो प्रत्येक शुभकार्य के साथ स्वास्तिक जुड़ा हुआ हैं । भवन निर्माण के आरंभ में ही स्वास्तिक का प्रयोग नींव रखते समय शुभ होता हैं। बच्चे का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर बनाया जाता है, स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने का अर्थ माना जाता है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का योगात्मक रूप सिर पर हमेशा प्रभावी रहे,स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित रहे, चारों तरफ़ भटके नही, वृहद रूप में स्वास्तिक की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण इनर्जी को एकत्रित करने के बाद बिन्दु की तरफ़ इकट्ठा करने से भी माना जाता है,स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें एक साथ काटती है,उसे सिर के बिलकुल बीच में चुना जाता है, बीच का स्थान बच्चे के सिर में परखने के लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है और एक तरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र की प्राथमिक अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क होने पर वह हड्डी से ढक जाता है, के स्थान पर बनाया जाता है।
स्वास्तिक की भुजाओं का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य माना जाता है, बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है। काला स्वास्तिक शमशानी शक्तियों को बस में करने के लिये किया जाता है, लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के प्रति भी माना जाता है, डाक्टरों ने भी स्वास्तिक का प्रयोग आदि काल से किया है, लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश नही होता है। केवल धन (+) का निशान ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है, विभिन्न रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता है।
स्वास्तिक का उपयोग वास्तुशास्त्र में स्वीकारा जा रहा हैं। जहां वास्तुकारता हो वहां भवन के प्रवेश द्वार पर स्वास्तिक लगाने से घर के समस्त वास्तुदोष स्वतः दूर हो जाते हैं और यही प्रयोग आप अपने व्यापारिक संस्थान या कार्यालय में भी कर सकते हैं। इसका प्रयोग मकान, दुकान एवं कार्यालय में किया जाता हैं। इसके प्रयोग से मनुष्य के जीवन में व्याप्त तनाव, रोग, क्लेश, निर्धनता एवं शत्रुता का निवारण होता हैं। रसोईघर, तिजोरी, स्टोररूम एवं प्रवेश द्वार पर सिन्दूर या हल्दी का प्रयोग लाभदायक रहता हैं। स्वास्तिक का प्रयोग शुद्ध, पवित्र एवं सही तरीके तथा स्थान पर करना चाहिए । शौचालय एवं गन्दे स्थानों पर स्वास्तिक का प्रयोग वर्जित (निषेध) हैं । ऐसा करने वाला एवं करवाने वाले की बुद्धि विवेक समाप्त हो जाता हैं, दरद्रिता, तनाव व रोग एवं क्लेश में वृद्धि होती हैं । महिलाओं का स्वास्थ्य खराब रहने लगता हैं । स्वास्तिक जो भारतीय सभ्यता एवं ज्योतिष का प्रतीक हैं की वास्तु शास्त्र के अनुसार विभिन्न प्रकार के दोषो को दूर करने तथा किसी स्थान विशेष की नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने में किया जाता हैं । यह नकारात्मक ऊर्जा भवन को वास्तु अनुरूप न बनाने अथवा प्राकृतिक दोष के कारण बन सकती हैं ।
इसका निवारण स्वास्तिक का प्रयोग कर निम्न प्रकार से किया जा सकता हैं:-
1- किसी भी भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री अथवा कार्यस्थल के मुख्य द्वारा के ऊपर अथवा दोनो तरफ स्वास्तिक बनाए
2- पूजा स्थल में स्वास्तिक स्थापित करें । पूजा स्थल को स्वच्छ रखे ।
3- स्वास्तिक चिन्ह अलमारी, तिजौरी व दुकान के केश बाॅक्स के ऊपर निर्मित करें । यह चिन्ह गणेशजी का प्रतिक हैं । गणेशजी रिद्धी-सिद्धी के स्वामी माने जाते हैं ।
4- कुमकुम सिन्दूर व अष्टगंध अथवा काले रंग से भी स्वास्तिक चिन्ह बनाया जा सकता हैं।
स्वास्तिक को धन की देवी लक्ष्मी का प्रतीक चिन्ह माना जाता हैं । इस प्रकार स्वास्तिक चिन्ह भारतीय संस्कृति के अनेक प्रतीकों को समेटे हुए हैं । स्वास्तिक चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरूण व सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आर्शीवाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता हैं ।
अतः हमें स्वास्तिक के महत्व को समझकर श्रद्धापूर्वक अपनाना चाहिए । अनजाने में इसके अपमान या गलत प्रयोग से बचना चाहिए । स्वास्तिक के प्रयोग से निम्न लाभ होते हैं -
1- धनवृद्धि
2- गृह शान्ति
3- रोग निवारण
4- वास्तुदोष निवारण
5- भौतिक कामनाओं की पूर्ति
6- तनाव अनिद्रा व चिन्ता से मुक्ति
स्वास्तिक का निशान भारत के अलावा विश्व में अन्य देशों में भी प्रयोग में लाया जाता है, जर्मन देश में इसे राजकीय चिन्ह से शोभायमान किया गया है, अन्ग्रेजी के क्रास में भी स्वास्तिक का बदला हुआ रूप मिलता है, हिटलर का यह फ़ौज का निशान था, कहा जाता है कि वह इसे अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में प्रयोग करता था, लेकिन उसके अंत के समय भूल से बर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था, जितना शुभ अर्थ सीधे स्वास्तिक का लगाया जाता है, उससे भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ भी माना जाता है।
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