बस स्टेशन पौड़ी से कुछ ही दूरी पर स्थित "लक्ष्मीनारायण मन्दिर" की स्थापना १४-फरवरी-१९१२ संक्रान्ति पर्व पर की गई थी। इस मन्दिर में स्थापित लक्ष्मी और नाराय़ण की मूर्ति सन् १९१२ पूर्व विरह गंगा की बाढ़ आने के उपरान्त श्रीनगर राज दरबार से लाकर यहां स्थापित की गयी थी। जिनमें हनुमान जी तथा गणेश जी की मूर्ति पत्थर की है। इसी मन्दिर परिसर में शिवलिंग भी स्थापित है। यह शिवलिंग जिला चिकित्सालय पौड़ी के निर्माण के समय भूमि खुदान के समय चट्टान से प्राप्त हुआ था। मन्दिर की स्थापना के बारें में पुजारी श्री विनोद बहुगुणा के अनुसार लगभग १९५० के वर्ष में एक एक सिद्ध महात्मा इस मन्दिर में आये और जिस स्थान पर शिवलिंग स्थापित है उस स्थान पर अपना त्रिशूल गाढ़कर छह माह के अन्दर शिवलिंग की स्थापना की बात कहा कर चले गये। उनके जाने के बाद जिला चिकित्सालय की भूमि की खुदाई में यह शिवलिंग प्राप्त हुआ जिसकी स्थापना यहां लक्ष्मीनारायण मन्दिर के परिसर में की गई। उन सिद्धमहात्मा का वह त्रिशूल आज भी मन्दिर में स्थापित है। मान्यता है कि सन् १८२० में सिद्ध महात्मा सरजू भैया ने इस स्थान पर विश्राम किया था। मन्दिर प्रांगण के बायीं ओर एक जल स्रोत है, कहा जाता है कि यह जलस्रोत भी उन्ही सिद्ध महात्मा जी के चिमटे से ही उद्गमित हुआ है जिसका लाभ भक्तजन आज भी उठा रहे हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार जिस स्थान पर यह मन्दिर विराजमान है वह भूमि पौड़ी गांव के दानदाताओं जसपाल सिंह नेगी, पदमेन्द्र नेगी, स्व० लक्ष्मण सिंह (ब्रिगेडियर साहब) तथा रौथाण बन्धुओं ने दान स्वरूप मन्दिर को उपलब्ध कराई थी। कहा जाता है कि सन् १९१२ से १९६२ तक बद्रीनाथ मन्दिर से इस मन्दिर को एक तोला केसर, एक किलोग्राम चन्दन, एक रूपया दूध आदि के लिये, भगवान के वस्त्र पार्सल द्वारा नियमित रूप से प्रदान होते थे। इसी प्रकार जम्मू के कर्णराजा सन् १९५५ से १९७२ तक दस रूपये महीने पुजारी के लिये भेजते थे। परन्तु अब मन्दिर की अर्थव्यवस्था पूर्णतया दान पर ही निर्भर है। जिसमें स्थानीय दानी दाताओं की सक्रिय भूमिका रहती है। समय समय पर इस मन्दिर में धार्मिक अनुष्ठान होते रहते हैं। वर्ष भर यह मन्दिर भक्तों हेतु खुला रहता है। साभार : वीरेन्द्र खंकरियाल [पौड़ी और आस पास]
किसी नाम के आगे ईश्वर लगाकर उसको किसी देवी-देवता की उपाधि से विभूषित कर देना हिन्दू संस्कृति की पुरानी परंपरा है। रामायण काल के मूक साक्षी सितोन्स्यूं क्षेत्र में जहां मनसार का मेला लगता है, से एक फर्लांग की दूरी पर तीन नद...
संपूर्ण उत्तराखण्ड देवभूमि के नाम से विख्यात है। ऋषि मुनियों की यह पुण्यभूमि आज भी अनेक देवी देवताओं के नाम पर प्रतिष्ठित मन्दिरों को अपनी गोद में आश्रय दिये हुये भारतीय संस्कृति को पोषित कर रही है। प्राचीनकाल से ही भक्तगण...
पौड़ी शहर से ९ किलोमीटर की दूरी पर पौड़ी-देवप्रयाग राजमार्ग पर आंछरीखाल नामक स्थान पर स्थित है मां वैष्णो देवी का मन्दिर। धार्मिक एवं दर्शनीय पर्यटन के लिये यह स्थान काफी रमणीक है। यहां से हिमालय की विस्तृत दृश्यावली के साथ ...
देवलगढ़ का उत्तराखण्ड के इतिहास में अपना एक अलग ही महत्व है। प्राचीन समय में उत्तराखण्ड ५२ छोटे-छोटे सूबों में बंटा था जिन्हें गढ़ के नाम से जाना जाता था और इन्ही ने नाम पर देवभूमि का यह भूभाग गढ़वाल कहलाया। १४वीं शताब्दी में...
पौड़ी से ३७ किमी दूर स्थित है नागराजा मन्दिर। उत्तराखण्ड के गढ़वाल मण्डल में जिस देवशक्ति की सर्वाधिक मान्यता है वह है भगवान कृष्ण के अवतार के रूप में बहुमान्य नागराजा की। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब भगवान कृष्ण को यह क्ष...
कण्डोलिया देवता वस्तुत: चम्पावत क्षेत्र के डुंगरियाल नेगी जाति के लोगों के इष्ट "गोरिल देवता" है। कहा जाता है कि डुंगरियाल नेगी जाति के पूर्वजों ने गोरिल देवता से यहां निवास करने का अनुरोध किया था जिन्हे वे पौड़ी ...