पौड़ी बस स्टेशन से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर कण्डोलिया-बुवाखाल मार्ग पर स्थित है घने जंगल के मध्य स्थित है "नागदेव मंदिर"। प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण घने बांज, बुरांश तथा गगनचुम्बी देवदार, चीड़ के वृक्षों के बीच से छनकर आती सूर्य की किरणें, मंद-मदं बहती सुगन्धित बयार भक्तजनों के हृदय को शीतलता प्रदान करती हैं। मंदिर के समीप प्राकृतिक स्रोत का शीतल जल पर्यटकों के लिये संजीवनी समान प्रतीत होता है। नगर में स्थित यह नागदेवता का मन्दिर उत्तराखण्ड में गढ़वाल में नागवंशियों के प्रवास को सिद्ध करता है। नागदेवता के इस मन्दिर की स्थापना के बारें में लोगों के भिन्न भिन्न मत हैं लेकिन धार्मिक आस्था और विश्वास के फलस्वरूप जो कहानी उभर का आई है वह इस प्रकार है। नागदेवता मूलरूप से डोभाल वंश का देवता माना जाता है। पौड़ी शहर से लगभग ११ किलोमीटर दूर पौड़ी श्रीनगर राजमार्ग पर नादलस्यूं पट्टी में स्थित है "डोभ गांव", जिसमें डोभाला जाति के लोग रहते हैं। कहा जाता है कि लगभग २०० वर्ष पूर्व डोभ-गांव के डोभाल वंश में एक बालक का जन्म हुआ जिसका ऊपरी हिस्सा मनुष्य रूप एवं कमर से नीचे का हिस्सा सर्प रूप में था जिसे नागरूप कहा जाता है। यह बालक जन्म से ही प्रत्यक्ष भाषित था। अपने जन्म के बाद बालक ने अपने पिता से कहा कि मुझे लैन्सडाऊन क्षेत्र में भैरवगढ़ी मन्दिर के पास एक स्थान पर कंण्डी में ले जाकर स्थापित कर दो। साथ ही यह भी कहा कि मुझे यहां से ले जाते समय मार्ग में किसी भी स्थान पर कण्डी को नीचे ना रखा जाय, मुझे वहीं उतारना जहां स्थापना होनी है। कहा जाता है कि डोभाल वंश, गर्ग गोत्र के लोग बालक को कण्डी में लेकर गन्तव्य की ओर डोभ-गांव, प्रेमनगर, चोपड़ा, झण्डीधार होते हुये निकल पड़े। झण्डीधार से थोड़ा नीचे उन्होने भूलवश कण्डी को जमीन पर रख दिया, जिसके बाद उन अर्द्धनागेश्वर बालक ने सभी लोगों से कण्डी को छूने व उठाने से इन्कार कर दिया। उस देव बालक ने उन लोगों से कुछ दूरी पर खोदने का आदेश दिया। देवबालक के बताये स्थान पर खुदाई करने पर एक शीतल जलधारा निकली। बालक के आदेशानुसार उन्होने उस जल से स्नान करके उस बालक को पूजा अर्चना करके वहीं स्थापित कर दिया। तभी से यह स्थान नागदेवा कहलाने लगा। खुदाई से उपजा वह प्राकृतिक जल स्रोत आज भी मन्दिर के समीप ही स्थित है तथा नागदेवता एक प्रस्तरशिला के रूप में दृष्टिगोचर है। कहा जाता है कि आज भी कोमल हृदय एवं अटूट श्रद्धा से जाने वाले भक्तों को नागदेवता दर्शन देते हैं। मान्यता है कि मन्दिर में स्थापित प्रस्तर शिला के समीप ही एक छिद्र में नाग देवता निवास करते हैं जहां पुजारी गण नित्य प्रति एक कटोरी में दूध रख देते हैं और यह कटोरी कुछ समय बाद खाली मिलती है। पुजारी तथा भक्तगणों के अनुसार अक्सर इस स्थान पर नाग देवता की उपस्थिति का एहसास होता है। मन्दिर के पुजारी जी ने एक ओर विस्मयकारी बात की तरफ हमारी टीम का ध्यान आकृष्ट किया, मुख्यतया चीड़ के वृक्ष आकार में सीधे होते हैं परन्तु जिस चीड़ के वृक्ष के नीचे प्रस्तर शिला स्थापित है उसने ऊपर जाकर फन फैलाये हुये नाग का आकार लिया हुआ है। जून माह में इस स्थान पर दो दिवसीय भजन-कीर्तन एवं भण्डारे का आयोजन होता है। वर्ष भर यहां श्रद्धालुगण, नव विवाहित युगल अपनी अपनी मनोकामनायें लेकर इस स्थान पर आते रहते हैं साभार : वीरेन्द्र खंकरियाल [पौड़ी और आस पास]
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सीता और लक्ष्मणजी सितोन्स्यूं क्षेत्र की जनता के प्रमुख अराध्य देव हैं। देवल गांव में शेषावतार लक्ष्मण जी का एक अति प्राचीन मन्दिर है। इसके चारों और छोटे बड़े ११ प्राचीन मन्दिर और हैं। इन बारह मन्दिरों की संरचना और उनमें स्...
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बस स्टेशन पौड़ी से कुछ ही दूरी पर स्थित "लक्ष्मीनारायण मन्दिर" की स्थापना १४-फरवरी-१९१२ संक्रान्ति पर्व पर की गई थी। इस मन्दिर में स्थापित लक्ष्मी और नाराय़ण की मूर्ति सन् १९१२ पूर्व विरह गंगा की बाढ़ आने के उ...
देवलगढ़ का उत्तराखण्ड के इतिहास में अपना एक अलग ही महत्व है। प्राचीन समय में उत्तराखण्ड ५२ छोटे-छोटे सूबों में बंटा था जिन्हें गढ़ के नाम से जाना जाता था और इन्ही ने नाम पर देवभूमि का यह भूभाग गढ़वाल कहलाया। १४वीं शताब्दी में...
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